Tuesday, March 29, 2011

मुझको जग में आने दे मां !

कोख में तेरी पड़ी पड़ी
सोच रही ये घड़ी-घड़ी
मैं कैसा जीवन पाऊँगी
जब दुनिया में मैं आऊँगी
क्या दूजे बच्चों की मानिंद
मैं भी खेलूँगी, खाऊँगी
या तेरी तरह मेरी जननी
जीवन भर धक्के पाऊँगी
ग़र तू भी साथ नहीं देगी
तो बोल कहाँ मैं जाऊँगी
क्यों ऐसा होता आया है
कन्या ने जन्म जब पाया है
जन्मदाता के माथे पर
चिंता का बादल छाया है
ग़र धरती पर मैं बोझ हूँ माँ
क्यों ईश्वर ने मुझे बनाया है
फिर दुनिया में आने से पहले
क्यों तूने मुझे मिटाया है
मुझको आजमाने से पहले
वजूद मेरा झुठलाया है
मैं हाड-माँस की पुतली हूँ
कुछ मेरी भी अभिलाषा है
सब की भाँति इस दुनिया में
जीने की मुझे भी आशा है
कुछ मुझमें भी तो क्षमता है
इस जग को दिखलाने दे माँ
खुद को साबित करने को
मुझको इस जग में आने दे माँ
पर सबसे पहले मेरी माँ
मुझ पर विश्वास ज़रूरी है
उससे भी पहले जननी मेरी
खुद पर विश्वास ज़रूरी है
ग़र जन्म नहीं मैं पाऊँगी
क्या साबित कर दिखलाऊँगी
इस जग को कुछ दिखलाना है
मुझको इस जग में आना है
मुझको जग में आने दे मां !
मुझको जग में आने दे माँ !!

- रचनाकार डॉ अनिल चड्डा

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