Tuesday, March 29, 2011

होली के कई रंग (छोटी कविताएँ और क्षणिकाएँ)

गुलाल की छींटें
जो बिखराए थे कभी राहों में
मेरा फागुन
आज भी महका जाती हैं
छूती हैं हौले से मुझे
मन चन्दन हो जाता है
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सामने थाल में हो जब
बर्फी, गुझिया रसीले
तो मीठी है होली
पर हो जब उसमें
भूख, बेबसी, गरीबी
तो कहो कैसी है होली?
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रंग तुम्हारे
चुपचाप मेरे जीवन में
चले आते हैं
बेनूर चूनर पर
बरस
मुझ में समा जाते हैं
मै सतरंगी हो जाती हूँ

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रंग पर चढ़ के
शब्द तुम्हारे
गलियारे में उधम मचाते हैं
रात डेवड़ी पर
औंधेमुँह सो जाते हैं
फींके सपने मेरे
इन्द्रधनुषी हो जाते हैं
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बचा सबकी नज़र
मुझ पर फेंका
प्रेम रंग
उस का अभ्रक
चुभता है आज भी आँखों में
हर होली आँखें बरस जाती हैं
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पकवानों की मेज पर
कहकहों की भीड़ में
उन मासूम हाथों ने कुछ माँगा
झिड़कियां, दुत्कार, फफ्तियाँ
सभ्य लोगों की सभ्यता
कुछ यूँ मिली उसको
नौकर ने हाथ पकड़
बाहर का रास्ता दिखलाया
वो सहमी टुकुर-टुकुर देखती रही
महक से ही पेट भरती रही
यहाँ रंग और भंग का
खेल चलता रहा
वो भूख के अंधियारों में भटकती रही
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होली की मस्ती में
खेला खूब रंग
उधड़ी त्वचा बाल गिरा
आँखें हो गईं लाल
टेसू के रंग नहीं
रसायनिक हैं अबीर गुलाल
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महँगाई की मार
गरीबों के रसोई पर पड़ती है
इनके घर
गुझिया कहाँ तलती है
रंग है नहीं
तो कीचड़ से चलते हैं काम
सोचती हूँ
क्या त्यौहार में भी नहीं आते हैं
इनके घर भगवान
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बुराई जली
प्रह्‌लाद बचा
तो होली का रंग सजा
आज चहुँओर है
होलिका का राज
कोने में जल रहा प्रह्‌लाद
फिर कैसी होली है आज

रचना श्रीवास्तव

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