Tuesday, March 1, 2011

तुमसे प्रेम, तुम्हारे शहर से !

अगर दुनिया का दस्तूर निभाने के लिये
तुमसे कहा जाय
अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंको
वे दो दिन
जो अचानक ख़त्म हो गये
रोंयेदार ख़रगोश की छलांग की तरह
जिसके सफ़ेद रोंये का एहसास
अब भी मौजूद है मेरे खुरदुरे गालों पर
वे दो दिन
जब एक पुराने अनुभवी शहर की देह पर
अचानक उगा था एक टापू
जिस पर मैं खड़ा था अकेला
तुम्हारा इन्तज़ार करता हुआ
जैसे हिरनी करती है अपने बच्चों का इन्तज़ार
तुम कैसे निकाल फेंकोगी
वे दो दिन
जब दिन में चाँद उगा था
अपने तमाम साथियों के साथ
उत्सुकतावश
सिर्फ़ हमें देखने के लिये
तुम आयी थी
तुम्हारे आने पर गिर गई थी
इन्तज़ार की पत्ती पर टिकी संशय की वह बूँद
मैंने तुम्हें शहर के बीचोंबीच चूमा था
और इस तरह प्यार किया था तुम्हारे शहर को
ख़ूब-ख़ूब प्यार
बदले में तुम मुझसे लिपट गई थी मुझसे
अपने शहर की तमाम ख़ासियतों के साथ
तुमसे ख़ूशबू आयी थी फूलों-पत्तियों के साथ
तमाम खनिजों की
एक चमत्कार से मैं हतप्रभ थ
तुम कैसे करोगी वह फ्लाईओवर पार
जिससे गुज़रते अनायास तुम्हारी गर्दन मुड़ जाया करेगी
एक ख़ास दिशा की ओर
तुम कैसे बनाओंगी अपने लिये खीर
वहाँ हर निवाले में मेरे स्वाद की वंचना होगी
सच
तुम्हारा शहर बहुत ख़ूबसूरत है
चाँद, फूलों, गिलहरियों, कौओं, चट्टानों
और मोबाइल टॉवरों के साथ
तुम कैसे कर सकोगी
अपने शहर से उतना प्यार
जितना मैंने मेहमान होकर सिर्फ़ दो रातों में किया है
मैं जानता हूं
जो मैं कर सकता हूं आसानी से
तुम नहीं कर सकोगी उसी तरह
मैं तुम्हारी मदद करूँगा इसमें
अपने शहर का हाल सुनाकर
तुम तुलना करना दोनों की
और ख़ुश हो जाया करना
मेरे शहर में चाहे जितने हादसे हों
मैं हर बार तुम्हें ´ख़ैरियत है तमाम´ लिखूँगा
मैं हर चिट्ठी में अपना बदलता हुआ नाम लिखूँगा।

- विमल चंद्र पाण्डेय

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