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संवाद ज़रूरी है !
संवाद ज़रूरी है
सुबह, शाम और रात के उन लम्हों से
जो ख़ूबसूरत होते हुए भी
कुछ के लिए
किसी भयानक टीस की तरह हैं।
संवाद ज़रूरी है
उन मुट्ठियों से
जो हक़ के लिए तनने से पहले ही
डर जाती हैं कि कहीं
पूरा हाथ ही न काट दिया जाये।
संवाद ज़रूरी है
उस घर से
जिस घर में युवराज के
छद्म कदम तो पड़ते हैं
मगर रोटी के चंद टुकड़ों के
लड़खड़ाते क़दम भी नहीं पड़ते।
संवाद ज़रूरी है
उस पैसे से
जो अनाज के दानों पर लिखे
ग़रीब, मज़दूर के नामों को काट कर
उस पर अमीरों का नाम लिख देता है।
संवाद ज़रूरी है
उन आर्थिक नीतियों से
जो देश को महाशक्ति तो बनाती हैं
मगर भूखों के पेट में
दो दाने भी नहीं उड़ेल पातीं।
संवाद ज़रूरी है
धर्म के उन ठेकेदारों से
जो ईंट, पत्थर से बनी बेजान इमारतों के लिए
इंसान को इंसान के ख़ून का
प्यासा बना देते हैं।
संवाद ज़रूरी है
उस आधी दुनिया से
जिसका दामन हक़ से खाली है,
और जो बाजारवाद की बलिबेदी पर
मजबूर है चढ़ने के लिए।
संवाद ज़रूरी है
उन ग़रीब के बच्चों से
जिनकी आंखों में
आसमां छूने का ख़्वाब तो है
मगर जूठे बरतन धोने के सिवा
कोई पंख नहीं है उनके पास।
संवाद ज़रूरी है
हर उस शय से
जिसकी ज़द में आकर
तहज़ीब, रवायत और इंसानियत
सब अपना वजूद खो रहे हैं।
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