Sunday, February 27, 2011

* * बसंत-बसंत* *

सूना-सूना सा आकाश
बसा है मकानों की छतों पे अभी..
परदें हटाओ गर
तो खिड़कियों पे..
दिखती है खामोशी की परछाइयाँ..
लिपटी पड़ी है उदासी सी
सीखचों पे भी..
मगर कभी गुटका करेंगे
कांपते कबूतर रोशनदानों में..
सर्द कागज़ पर बर्फ से लफ्ज़
पिघल निकलेंगे..
हरी हवा उगने लगेगी
पतझड़ी समय में..
डार परिंदों की निकलेगी बतियाते हुए..
नज़र थिरकेगी हर शैय पे आते जाते हुए..
गुनगुनी धूप सहलाएगी सारी फ़िज़ा को..
जमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..
खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..

-
डिम्पल मलहोत्रा

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