Saturday, June 25, 2011

अच्‍युतानंद मिश्र की कुछ कवितायेँ !

अच्युतानंद मिश्र मूलतः कवि हैं। इनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। कविता के साथ-साथ आलोचना में भी सक्रिय। हाल ही में इनकी एक आलोचना पुस्तिका 'नक्सलबारी आन्दोलन और हिंदी कविता' प्रकाशित हुई है। इन्होने 'नक्सलबारी आन्दोलन और हिंदी कविता' पर उल्लेखनीय कार्य किया है। चूँकि अच्युतानंद मूलतः बोकारो के हैं, इसलिए बिरसा मुंडा के सपनों की फसल में जब आग लगती है तो उसकी गर्मी महसूस करते हैं। जबकि सरकार पूरे देश को लगभग यह मनवा चुकी है कि अपने हिस्से की जमीन, अपने हिस्से का हवा-पानी माँगने वाले ये उलगुलानी आतंकवादी है, ऐसे में अच्युतानंद की कविता अंधेरे समय में रोशनी दिखाती है। इनसे संपर्क करने का पता है - पता- फ्लैट नं॰ 227, पॉकेट-1, सेक्टर-14, द्वारका, नई दिल्ली-110075
मो॰- ९२१३१६६२५६


मुसहर

गाँव से लौटते हुए
इस बार पिता ने सारा सामान
लदवा दिया
ठकवा मुसहर की पीठ पर

कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं।

बच्चे- 1

बच्चे जो कि चोर नहीं थे
चोरी करते हुए पकड़े गए
चोरी करना बुरी बात है
इस एहसास से वे महरूम थे

दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थें
कि भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे।

बच्चे -2

सड़क पर चलते हुए एक बच्चे ने घुमाकर
एक घर की तरफ पत्थर फेंका
एक घर की खिड़की का शीशा टूट गया
पुलिस की बेरहम पिटाई के बाद बच्चे ने कबूल किया
वह बेहद शर्मिंदा है उसका निशाना चूक गया।

किसान

उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने ही बेच डाली थी
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फल और मूठ
हुआ करता था

उसके घर में जो
नमक की आखरी डली बची है

वह इसी हल की बदौलत है

उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना कि उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानों का देश

नींद में अक्सर उसके पिता
दादा के बखार की बात करते
बखार माने
पूछता है उसका बेटा
जो दस रुपये रोज पर खटता है
नंदू चाचा की साइकिल की दुकान पर

दरकती हुए ज़मीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालने का हुनर
नहीं सीख पायेगा वह

यह उन दिनों की बात है
जब भाषा इतनी बंजर नहीं हुई थी
दुनिया की हर भाषा में वह
अपने पेशे के साथ जीवित था
तब शायद डी.डी.टी का चलन
भाषा में और जीवन में
इतना आम नहीं हुआ था

वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी दिवस

वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचायेंगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन

कई सदी बाद
धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जायेगा
देखो यह किसान का माथा है
सूंघों इसे
इसमें अब तक बची है
फसल की गंध
यह मिट्टी के
भीतर से खिंच लेता था जीवन रस


डायनासोर की तरह
नष्ट नहीं हुई उनकी प्रजाति
उन्हें एक-एक कर
धीरे-धीरे नष्ट किया गया।


आँख में तिनका या सपना

ताकती
क्या है रे मनिया
मिस जोजो की आंख में
सपना है की तिनका है
चुभता है जो आंख में?
सपना भी कहीं चुभता है ?

माई कहती थी
गरीबन के आंख में
सपना भी चुभता है
कभी कभी तो माई
अजबे बात करती
कहती भूख में गुल्लर मीठी

एक बार बाबा के साथ माई
घूमने गयी मेला
कोई चोर भाग रहा था
उसके पीछे भाग रहे थे लोग
डरकर माई ने पकड़ लिया बाबा का हाथ
और छोड़ना भूल गयी
वहीँ बाबा ने खींचकर
एक थप्पड़ लगाया
और कहा
कहाँ से सीख आई ये शहरातू औरतों वाली चाल ?

बाद को ये किस्सा माई
बाबा की तारीफ में
सबको सुनाती
हंस-हंस कर थोडा लजाती हुई
एकदम वैसे जैसे मिस जोजो
सुनाती हैं अपने प्रेमियों के
चटपटे किस्से
जब भी दिन के वक्त कभी
बाबा माई को मारते
तो माई झट से
चूल्हे के पास बैठकर
धूंआ कर लेती
उसकी आँख से झरझर
आंसू गिरतें
कहती इस बार लकड़ी बहुत गीली है
आँख मैं धूंआ लगता है
या कहती कोई तिनका
उड़कर गया है आँख में

मिस जोजो दिन के वक्त
मनिया को बहुत अच्छी लगती
पर रात के वक्त उनकी आँखे
टेसू के फूल की तरह लाल
डर के मारे छिप जाती
मनिया रसोई में

और थोड़ी देर बाद
एक बाबू आता सीधे घुस जाता
मिस जोजो के कमरे में
सुबह मिस जोजो की आँख से
वो लाली गायब
शायद वो बाबू ही ले जाता होगा
कोई जादूगर ही होगा!

आज सुबह से ही मिस जोजो की
आँख से
झर-झर गिर रहे हैं आंसू
मनिया कहती है
आँख में कोई तिनका गया होगा
मिस जोजो कहती हैं
धत् पगली !
तिनका आँख में जाए
तो इतने आंसू नहीं बहते
ये तो यूँ तब बहते हैं
जब टूटता है कोई सपना

मनिया हैरान है
सोचती है
माई की आँख में तो तिनका.....!

बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती

बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती
रात भर कोई
उसके सपनो में कहता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान!

के है रे?

खाट पर लेटा बुधवा
इंतज़ार करता है
उसका पठारी मन पूछता है
जाने कब होगा विहान
जाने कब निकलेगा ललका सूरज
जाने कब ढलेगी ये अँधेरी रात
और फैलने लगती है चुप्पी
जंगल नदी पेड़ पहाड़
सब ख़ामोश
ख़ामोशी में घूमती है धरती
धरती में पड़ती है दरारें
दरारों में कोई भरता है बारूद
और सपनो में कोई बोलता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान

और विहान नहीं होता
ललका सूरज नहीं निकलता !

ये उदासी से भरे दिन हैं
ये पृथ्वी की उदासी के दिन हैं
ये नदी पहाड़ की उदासी के दिन हैं
ये बुधवा की उदासी के दिन है

महज़ पेट की आग में नहीं
जल रहा है बुधवा
आग जंगल में लगी है
और पेट पर हाथ रख
पूछता है बुधवा
कहाँ हो बिरसा कहाँ हो शिबुआ ?
कहाँ हो हमार सिधु-कानु?

क्या पृथ्वी पर चल रहा यह कोई नाटक है

जिसका नायक जंगल उदास है
जिसमे परदे के पीछे से बोलता है कोई
उलगुलान उलगुलान उलगुलान !

और उठता है शोर
और डूबता है दिन
और लगती है आग
धधकता है जंगल
बुधवा का कंठ जलने लगता है

बुधवा सोचता है
बहुत बहुत सोचता है बुधवा इन दिनों
शिबुआ बागी हो गया है

बुधवा पूछता है
क्या यह नून की लड़ाई है
शिबुआ कहता है
यह नून से भी बड़ी लड़ाई है

शिबुआ की तलाश में
रोज़ आती है पुलिस
जब कभी छिप के आता है शिबुआ
तो हँस के कहता है दादा
मै तो खुद पुलिस की तलाश में हूँ

शिबुआ ठठाकर हँसता है

उसकी हँसी से गूँज उठता है जंगल
लगता है धरती की दरारों में कोई विस्फोट होने वाला है
उसकी हँसी डराती है बुधवा को

डर बुधवा को तब भी लगा था
जब माँ डायन हो गयी थी
दादा के मरने के बाद
माँ को बनना पड़ा था डायन

एक दिन अचानक माँ गायब हो गयी
उन्होंने कहा माँ को उठा ले गए हैं देवता
एक देसी मुर्गा और एक बोतल दारू
चढ़ाने पर
देवता ने लौटायी थी माँ की लाश
उस दिन बुधवा
देवता से बहुत डरा था

शिबुआ कहता है
दादा तुमको मालूम नहीं
ये देवता कौन लोग हैं?
ये बस मुर्गा और दारू ही नहीं

आदमी का ग़ोश्त भी खाते हैं
ये तुम्हारा-हमारा
ये पूरे जंगल का ग़ोश्त खाना चाहते हैं दादा

दादा उठो
उठो दादा
दादा तभी होगा विहान
तभी निकलेगा ललका सूरज

बुधवा को लगता है
शिबुआ अब भी बैठा है उसके पास
शिबुआ गा रहा है गीत

"आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ..........."

और बुधवा को लगता है
कोई उसे झकझोर रहा है
कोई हिला रहा है उसे
कोई जगा रहा है उसे
कोई कहता है दादा उठो
हमने ढूँढ़ लिया है देवता को
कल विहान होने पर
उसे लटका देंगे फाँसी पर
दादा तभी निकलेगा ललका सूरज

दादा ये जंगल आदमियों का है
आदमखोरो का नहीं

और छटपटाकर
कटे परवे सा उठ बैठता है बुधवा
के है रे? के है रे?
और गहरे अंधकार में
गूंजता है सन्नाटा

सन्नाटे में गूँजती है
शिबुआ की हँसी .....!

अख़बार में छपा है

सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ
छेड़ दी है जंग
सरकार मने........

शिबुआ कहता है
सरकार मने देवता
मुर्गा और दारू उड़ाने वाला देवता
आदमखोर देवता
तो क्या शिबुआ देवता से लड़ेगा
सोचते ही बुधवा की
छूटने लगती है कँपकपी

उसे माँ याद आती है
जो बचपन में उसके डरने पर
उसे बिरसा और सिद्धू-कानू के
किस्से सुनाती थी

लेकिन माँ डायन है
माँ को देवता ले गए
माँ के प्राण खींच लिए थे देवता ने

माँ क्यों बनी थी डायन?
क्या माँ भी देवता के खिलाफ लड़ रही थी ?

ये कैसी बातें सोचने लगा है बुधवा
छिः देवता को लेकर ऐसी बातें
नहीं सोचनी चाहिए उसे
पर कहीं देवता और सरकार...........

अभी विहान नहीं हुआ है
बस भोरुक्वा दिख रहा है बुधवा को
भोरुक्वा की रोशनी में
बुधवा जा रहा है जंगल की तरफ
उसके आगे जा रही है माँ
माँ के कंधे पर बैठा है
छोटका शिबुआ

छोटका शिबुआ गा रहा है
"आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ..........."

अभी विहान नहीं हुआ है !

बाढ़

हर तरफ़ अथाह जल
जैसे डूब जाएगा आसमान
यही दिखाता है टी०वी०
एक डूबे हुए गाँव का चित्र
दिखाने से पहले
बजाता है एक भड़कीली धुन
और धीरे-धीरे डूबता है गाँव
और तेज़ बजती है धुन...

एक दस बरस का अधनंगा बच्चा
कुपोषित कई दिनों से रोता हुआ
दिखता है टी०वी० पर
बच्चा डकरते हुए कहता है--
भूखा हूँ पाँच दिन से
कैमरामैन शूट करने का मौक़ा नहीं गँवाता
बच्चा, भूखा बच्चा
पाँच दिन का भूखा बच्चा
क़ैद है कैमरे में ...

टी०वी० पर फैलती तेज़ रोशनी
बदल जाता है दृश्
डूबता हुआ गाँव डूबता जाता है
बच्चा, भूखा बच्चा
रह जाता है भूखा
हर तरफ़ है अथाह जल
हर तरफ़ है अथाह रौशनी ...

ख़बर

डूबता हुआ गाँव एक ख़बर है
डूबता हुआ बच्चा एक ख़बर है
ख़बर के बाहर का गाँव
कब का डूब चुका है
बच्चे की लाश फूल चुकी है
फूली हुई लाश एक ख़बर है ...

प्रतिनिधि

जब डूब रहा था सब-कुछ
तुम अपने मज़बूत क़िले में बंद थे
जब डूब चुका है सब-कुछ
तुम्हारे चेहरे पर अफ़सोस है
तुम डूबे हुए आदमी के प्रतिनिधि हो...

भूलना

एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है
एक आदमी यह दृश् देख कर
रो पड़ता है
एक आदमी आँखें फेर लेता है
एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है
याद रखो
वे तुम्हें भूलना सिखाते हैं ...

उम्‍मीद

एक गेंद डूब चुकी है
एक पेड़ पर बैठे हैं लोग
एक पेड़ डूब जाएगा
डूब जाएंगी अन् की स्मृतियाँ
इस भयंकर प्रलयकारी जलविस्तार में
एक-एक कर डूब जाएगा सब-कुछ ...
एक डूबता हुआ आदमी
बार-बार ऊपर कर रहा है अपना सिर
उसका मस्तिष् अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है लगातार
बचने की उम्मीद बाक़ी है अब भी ...


ढ़ेपा
रात को
पुरानी कमीज के धागों की तरह
उघड़ता रहता है जिस्
छोटुआ का

छोटुआ पहाड़ से नीचे गिरा हुआ
पत्थर नहीं
बरसात में मिटटी के ढेर से बना
एक भुरभुरा ढेपा* है
पूरी रात अकड़ती रहती है उसकी देह
और बरसाती मेढक की तरह
छटपटाता रहता है वह

मुँह अंधेरे जब छोटुआ बड़े-बड़े तसलों पर
पत्थर घिस रहा होता है
तो वह इन अजन्मे शब्दों से
एक नयी भाषा गढ़ रहा होता है
और रेत के कणों से शब् झड़ते हुए
धीरे-धीरे बहने लगते हैं

नींद स्वप् और जागरण के त्रिकोण को पार कर
एक गहरी बोझिल सुबह में
प्रवेश करता है छोटुआ
बंद दरवाजों की छिटकलियों में
दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ
दरवाजे के भीतर की मनुष्यता से बाहर जाता है
पसीने में डूबती उसकी बुश्शर्ट
सूरज के इरादों को आंखें तरेरने लगती हैं

और तभी छोटुआ
अनमनस् सा उन बच्चों को देखता है
जो पीठ पर बस्ता लादे चले जा रहे हैं

क्या दूध की बोतलें,अखबार के बंडल
सब्जी की ठेली ही
उसकी किताबें हैं...
दूध की खाली परातें
जूठे प्लेट, चाय की प्यालियां ही
उसकी कापियां हैं...
साबुन और मिट्टी से
कौन सी वर्णमाला उकेर रहा है वह ...

तुम्हारी जाति क्या है छोटुआ
रंग काला क्यों है तुम्हारा
कमीज फटी क्यों है
तुम्हारा बाप इतना पीता क्यों है
तुमने अपनी कल की कमाई
पतंग और कंचे खरीदने में क्यों गंवा दी
गांव में तुम्हारी माँ,बहन और छोटा भाई
और मां की छाती से चिपटा नन्हका
और जीने से उब चुकी दादी
तुम्हारी बाट क्यों जोहते हैं...
क्या तुम बीमार नहीं पड़ते
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्यों होते जा रहे हो...

बरतन धोता हुआ छोटुआ बुदबुदाता है
शायद खुद को कोई किस्सा सुनाता होगा
नदी और पहाड़ और जंगल के
जहां दूध की बोतलें जाती हैं
अखबार के बंडल
वहां हर पेड़ पर फल है
और हर नदी में साफ जल
और तभी मालिक का लड़का
छोटुआ की पीठ पर एक धौल जमाता है -
साला बिना पिए ही टुन् है
एत गो छोड़ा अपना बापो के पिछुआ देलकै
मरेगा साला हरामखोर
खा-खा कर भैंसा होता जा रहा है
और खटने के नाम पर
माँ और दादी याद आती है स्साले को

रेत की तरह ढहकर
नहीं टूटता है छोटुआ
छोटुआ आकाश में कुछ टूंगता भी नहीं
माँ को याद करता है बहन को
बाप तो बस दारू पीकर पीटता था

छोटुआ की पैंट फट गई है
छोटुआ की नाक बहती है
छोटुआ की आंख में अजीब सी नीरसता है
क्या छोटुआ सचमुच आदमी है
आदमी का ही बच्चा है ...
क्या है छोटुआ

पर
पहाड़ से लुढकता पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिट्टी के ढेर से बना ढेपा है वह
धीरे-धीरे सख् हो रहा है वह
बरसात के बाद जैसे मिट्टी के ढेपे
सख् होते जाते हैं
सख् होता जा रहा वह
इतना सख्
कि गलती से पाँव लग जाएँ
खून निकल आए अंगूठे से ...


Thursday, June 23, 2011

विपिन चौधरी की कुछ कवितायेँ !


आहुति::

किया था कभी प्रेम भी
अब हररोज़ उस प्रेम का हवन कुंड बना कर
अपने अरमानों की आहुति अर्पित करती हूँ
यही बेहतर रस्म है

शायद
फिर से जीवन की दिशा में सकुशल लौट आने की.


पानी और प्यास::

मेरी प्रीत को पानी का नाम दे कर
वह चार-दीवारी के गहरे कुँए में
तब्दील हो गया.
उसके बाद कभी
फिर से मेरी प्यास ने
दरियाओं का रूख नहीं किया.


धरती आकाश::

जब तुम आकाश रच रहे थे उस वक़्त मैं व्यस्त थी
अपनी धरती की ऊष्मा बचाने के लिये
तुमने ढेर सारे मोती बिखेर दिए
और कहा, चुनो
तब पहली बार लगा था चुनना कितना कठिन होता है

तुमने हाथ जोड़कर कहा, मांगो
और मैंने कुछ न मांगते हुए भी
मांग लिया था पूरा जहान

एक बार कहा था तुमने
चीज़े छोटी नहीं
हमारी कामनाएँ बड़ी होती हैं
मैंने उसी वक़्त उस वाक्य को
संसार का अंतिम वाक्य मान लिया था

कई और चीजों की तरह तुम यह भी मुझसे बेहतर जानते थे की मुझे
हर उस चीज़ से प्रेम है
जो कुदरत ने मेरी नजरों के
सामने रखी दी है बिना किसी लाग लपेट के
फिर भी तुम मुझे एक अ-कुदरती रिश्ते मे बाँध ले जाना चाहते थे

उन ठोस दिनों की ये बातें
किसी भरोसे की शुरुआत की तरह थी
जो किसी भी सूरत मे ख़तम होने के लिये नहीं थी.


एक उदास चेहरा::

जीवन के तमाम आरोह -अवरोह के बीच
अवसाद की जो महीन झिर्रियाँ हैं
उन्हीं के पास खड़ा है
वह उदास चेहरा

मछली की फांस की तरह
देर तक अटका रहता है
मन के भीतर जो अनगिनत पोखर बन गए हैं
कभी वे उसकी उँगलियों के निशान थे
जो समय के साथ गहरे और गहरे धंसते गए
आत्मा के जल से बूंद- बूंद भर कर
पोखर मे तब्दील होते चले गए

इतनी आत्मीयता के बावजूद
उस उदास चेहरे ने कोई ऐसा तार भी नहीं छोड़ा था कि
मैं खींच लेती उसे अपने पास
हम दोनों की दूर- नज़दीक की सभी विडम्बनाएं अपने चरम पर थी
और इन विडम्बनाओं में ज़रा भी आपसी सामंजस्य नहीं था

छोड़ आयी उस उदास चेहरे को दूर कहीं
अकेले, असहाय
मुझे भी अकेले ही गुज़रना था
अपने फैसलों की सतही सड़क पर.

जीवन से काटी गयी कुछ बारीक कतरनें ::
१.

मेरी खामोशी जितना कह सकती थी,
कह गई
तुम्हारे शब्द मेरी खामोशी को सोखते रहे
पर सीले नहीं हुए
और सूखे-मरुस्थल से शब्दों में
कुछ भी तो नहीं अटकता।


२.

कहीं ओट एक आवाज़ आई और
मैं इस वक्त भी उसके साथ थी
यह बेहतर पसंद का मामला था
जो दोनों तरफ से एक साथ उठना था
पर न जाने कुछ बुरे धब्बों ने अपना असर
हमारी मुलाकात पर छोडना ही था।


३.

तेज़ हवा मेरे साथ थी और
एक दिन बासी स्मृतियाँ
इन स्मृतियों की घनी पत्तियों का रंग कुछ काला पड़ गया था
पर मुझे उन्हें सुर्ख रखने का
हर सम्भव यत्न करना था
अपने लहू का रंग देकर भी।
४.

एक ऊँची उठती अज़ान के आस-पास
ही उगे थे कुछ अहसास
कुछ जन्म ले रहा था कहीं
यह शुरूआत थी या अंत
या कोई सपना जो बिल्ली के बच्चे की तरह ही दबे पाँव आया और

उन्हीं नाज़ुक कदमों से लौट गया।


Monday, June 20, 2011

पिता के पास लोरियाँ नही होती !

(पितृ-दिवस पर विशेष)

पिता, मोटे तने और गहरी जड़ों वाला
एक वृक्ष होता है
एक विशाल वृक्ष
और मां होती है
उस वृक्ष की छाया
जिसके नीचे बच्चे
बनाते बिगाड़ते हैं
अपने घरौंदे।
पिता के पास
दो ऊंचे और मजबूत कंधे भी होते हैं
जिन पर च़ढ़ कर बच्चे
आसमान छूने के सपने देखते हैं ।
पिता के पास एक चौड़ा और गहरा
सीना भी होता है
जिसमें जज्ब रखता है
वह अपने सारे दुख
चेहरे पर जाड़े की धूप की तरह फैली
चिर मुस्कान के साथ।
पिता के दो मजबूत हाथ
छेनी और हथौड़े की तरह
दिन रात तराशते रहते हैं सपने
सिर्फ और सिर्फ बच्चों के लिए,
इसके लिए अक्सर
वह अपनी जरूरतें
और यहां तक की अपने सपने भी
कर देता है मुल्तवी
और कई बार तो स्थगित भी।
पिता, भूत वर्तमान, और भविष्य
तीनों को एक साथ जीता है
भूत की स्मृतियां
वर्तमान का भार और बच्चों में भविष्य .
पिता की उंगली पकड़ कर
चलना सीखते बच्चे
एक दिन इतने बड़े हो जाते हैं
कि भूल जाते हैं रिश्तों की संवेदना
सड़क, पुल और बीहड़ रास्तों में
उंगली पकड़ कर तय किया कठिन सफर।
बाहें डाल कर
बच्चे जब झूलते हैं
और भरते हैं किलकारियां
तब पूरी कायनात सिमट आती है उसकी बाहों में,
इसी सुख पर पिता कुरबान करता है
अपनी पूरी जिन्दगी,
और इसी के लिए पिता
बहाता है पसीना ताजिन्दगी
ढोता है बोझा, खपता है फैक्ट्री में
पिसता है दफ्तर में
और बनता है बुनियाद का पत्थर
जिस पर तामीर होते हैं
बच्चों के सपने
पर फिर भी पिता के पास
बच्चों को बहलाने और सुलाने के लिए
लोरियां नहीं होती।

कवि: बी एस कटियार

उम्मीद भरा गीत


प्रस्तुत कविता चैन सिंह शेखावत की है। चैन सिंह जी राजस्थान के माध्यमिक शिक्षा विभाग मैं हिंदी व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं और राजस्थानी तथा हिंदी दोनो मे काव्य-सृजन करते हैं। .विभिन्न समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी कविता की ई-पत्रिकाओं में भी कविताओं का प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त राजस्थान के शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में भी रचनाएँ संकलित हुई हैं। हिंद-युग्म पर चैन सिंह शेखावत के यह प्रथम कविता है। कविता का प्रबल आशावाद इसकी प्रमुख शक्ति है।


पुरस्कृत कविता: उम्मीद भरा गीत

शब्दों का ही सामर्थ्य है
दिन अभी इतने मैले नहीं हुए हैं
निथर जाएगा सब आकाश
चाँद फिर तुम्हें मनुहारने
झाड़ियों की ओट तक
चला आएगा

एक कविता इतनी उम्मीद भरा गीत है
सत्ता और शोषण की
तमाम नाकेबंदियों में
आदमी आज़ाद है तो
इसी दम पर

कोई पुचकारने या सहलाने नहीं आएगा
हमें अपने अपने हिस्से के पात्र
स्वयं गढ़ने होंगे
कुंद हुए किनारों पर
अंगूठे से धार चखनी है

तुम रहो या ना रहो
तुम्हारे पुराने कपड़ों में कोई और होगा
बीत चुके सावन में लगाए पेड़ों पर
तुम्हारी ही शक्ल के लोग
झूला झूलते होंगे

एक दिन जरूर ऐसा आएगा
धरती का बाँझपन
और युद्धरत मनुष्यता
तुम्हारे सामने बौने नज़र आएँगे
तब तुम समझोगे
मेरे शब्द की ताक़त क्या है।

काव्यसदी !

आज हम काव्यसदी की दूसरी कड़ी लेकर उपस्थित हैं। इसमें आप पढ़ेंगे युवा कवि सुरेश सेन निशांत की कविताएँ।

सुरेश सेन निशांत


जन्म- 12 अगस्त 1959
1986 से लिखना शुरू किया। लगभग पाँच साल तक गजलें लिखते रहे। तभी एक मित्र ने ‘पहल’ पढ़ने को दी। ‘पहल’ से मिलना, उसे पढ़ना इनके लिए बहुत ही अदभुत अनुभव रहा। कविता को पढ़ने की समझ बनी। 1992 से कविता लिखना शुरू किया। हाल ही में कुछ कविताएँ महत्वपूर्ण पत-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
शिक्षा: दसवीं तक पढ़ाई के वाद विद्युत संकाय में डिप्लोमा। वर्तमान में कनिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत।
मनपसंद कवि: त्रिलोचन, विजेन्द्र, केदारनाथ अग्रवाल, कुमार अबुंज, राजेश जोशी, अरूण कमल, एकांत व स्वप्निल श्रीवास्तव और पाश।
विदेशी कवियों में: नाजिम हिकमत, महमूद दरवेश।
पुरस्कार और सम्मान: पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान 2008, सेतू सम्मान 2011
कविता संग्रह: वे जो लकड़हारे नहीं हैं - 2010, ‘आकण्ठ’ पत्रिका का हिमाचल समकालीन कविता विशेषांक का सम्पादन।
सेब

सेब नहीं चिट्ठी है
पहाड़ों से भेजी है हमने
अपनी कुशलता की

सुदूर बैठे आप
जब भी चखते हैं यह फल
चिड़िया की चहचहाहट
पहाड़ों का संगीत
ध्रती की खुशी और हमारा प्यार
अनायास ही पहुँच जाता है आप तक

भिगो देता है
जिस्म के पोर-पोर।

कहती है इसकी मिठास
बहुत पुरानी और एक-सी है
इस जीवन को खुशनुमा बनाने की
हमारी ललक।

बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी आँखों में बैठे इस जल में
झिलमिलाती प्यार भरी इच्छाएँ।

पहाड़ों से हमने
अपने पसीने की स्याही से
खुरदरे हाथों से
लिखी है यह चिट्ठी
कि बहुत पुराने और एक-से हैं
हमारे और आपके दुख
तथा दुश्मनों के चेहरे

बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी खुद्दारी और हठ

धरती का हल की फाल से नहीं
अपने मज़बूत इरादों की नोक से
बनाते हैं हम उर्वरा।

उकेरे हैं इस चिट्ठी में हमने
धरती के सबसे प्यारे रंग
भरी है सूरज की किरणों की मुस्कान
दुर्गम पहाड़ों से
हर बरस भेजते हैं हम चिट्ठी
संदेशा अपनी कुशलता का
सेब नहीं।


पीठ

सुरेश सेन की विश्वसनीय कविताई का राज है अकृत्रिमता, सहजता, अभिन्नता और अनौपचारिकता। वे अपने विषय के प्रति सर्जक के भाव से नहीं, दर्शक के भाव से नहीं, मित्र के भाव से, हितैषी के भाव से या भक्त के भाव से जुड़ते हैं। विषय से उनकी दूरी बस उतनी ही है कि अपनी नज़रों से साफ-साफ उसे देख पायें। उसको संपूर्णता में समझ पायें, और व्यापक संदर्भों में उसके मूल्य को परख पायें। निशांत विषय को जीने वाले उसमें रमने वाले, उसके दुखद या सुखद रंग में रंग जाने वाले कवि हैं। वे ऐसा कोई मुद्दा उठाते ही नहीं, जो उनकी आत्मा को उद्वेलित न करता हो, जो उन्हें भीतर से आकुल-व्याकुल या प्रफुल्ल ना करता हो। जिसके वजूद का एहसास उनके भीतर को सिहरन से ना भर दे। जहाँ भी सूचनात्मक या परिचयात्मक तौर पर उन्होंने किसी विषय को उठाया है, वहाँ वे अपने असली रंग में नहीं दिखे हैं।
-भरत प्रसाद
यह दस वर्ष के लड़के की पीठ है
पीठ कहाँ हरी दूब से सजा
खेल का मैदान है
जहाँ खेलते हैं दिनभर छोटे-छोटे बच्चे।

इस पीठ पर
नहीं है किताबों से भरे
बस्ते का बोझ।
इस पीठ को
नहीं करती मालिश माताएँ।
इस पीठ को नहीं थपथपाते हैं उनके पिता।
इस दस बरस की नाजुक सी पीठ पर है
विधवा माँ और
दो छोटे भाइयों का भारी बोझ।
रात गहरी नींद में
इस थकी पीठ को
अपने आँसुओं से देती है टकोर एक माँ।
एक छोटी बहिन
अपनी नन्ही उँगलियों से
करती है मालिश
सुबह-सुबह भरी रहती है
उत्साह से पीठ।

इस पीठ पर
कभी-कभी उपड़े होते हैं
बेंत की मार के गहरे नीले निशान।

इस पीठ पर
प्यार से हाथ फेरो
तो कोई भी सुन सकता है
दबी हुई सिसकियाँ।

इतना सब कुछ होने के बावजूद
यह पीठ बड़ी हो रही है

यह पीठ चौड़ी हो रही है
यह पीठ ज्यादा बोझा उठाना सीख रही है।

उम्र के साथ-साथ
यह पीठ कमजोर भी होने लगेगी
टेढ़ी होने लगेगी जिन्दगी के बोझ से
एक दिन नहीं खेल पाएँगे इस पर बच्चे।

एक दिन ठीक से घोड़ा नहीं बन पाएगी
होगी तकलीफ बच्चों को
इस पीठ पर सवारी करने में।

वे प्यार से समझाएँगे इस पीठ को
कि घर जाओ और आराम करो
अब आराम करने की उम्र है तुम्हारी
और मँगवा लेंगे
उसके दस बरस के बेटे की पीठ
वह कोमल होगी
खूब हरी होगी
जिस पर खेल सकेंगे
मजे से उनके बच्चे।

वे जो लकड़हारे नहीं हैं

यह जो स्थानीय अखबारों में
छपा है फोटू
वन माफिया के पकड़े गये गुर्गों का।
दीन-हीन फटेहाल
निरीह से जो बैठे हैं पाँच जन एक पंक्ति में
ही हैं वन माफिया के पकड़े गये गुर्गे।
फोटू में इनके पीछे गर्व से
सीना ताने जो खड़े हैं
ये पुलिस और वन विभाग महकमे के
मँझोले घाघ अफसर हैं।
नहीं की मुस्तैदी में
कई दिनों की मेहनत के बाद
गुप्त सूचना के आधार पे पकड़े गये हैं ये।
फोटू में इन अफसरों के चेहरों से
झलकती आभा बता रही है
कि वे इस प्रशंसनीय कार्य के लिये
माननीय राष्ट्रपति जी की ओर
निहार रहे हैं किसी पदक के लिये।

जिसके लिये कर भी रहे हैं
ये सभी चारा-जोरी
खंगाल रहे हैं अपने-अपने सोर्स
कुछ ने तो लिखवा भी दिये हैं
अपने-अपने नामों के सिफारशी पत्रा ।

गुप्त सूचना मे भी है कि
ये पाँचों बचपन से ही रहते आये हैं
जंगल में इन पेड़ों के बीच
जंगल के एक-एक रास्ते से
जंगल की एक-एक बूटी से
और घास तक से वाकिफ हैं ये।
इन्हें पता रहता है
कौन-सी बूटी के मरहम से भरता है घाव

कौन सी बूटी के सेवन से
उतर जाता है पुराना बुखार।
किस बूटी को खिलाने से
नये दूध में उतर जाती है बाँझ गाय।

वे ये भी जानते हैं
कौन से पेड़ की लकड़ी
ठीक रहती है हल की फाल के लिये
वे जलती हुई सुखी पत्तियों की
गंध से बता सकते हैं
किसी भी पेड़ की जाति और वंश।

हैरानी की बात तो ये है
कि इन्हें पता है
कि जंगल और पेड़ जिस दिन
हो जाएँगे खत्म
सूखती हुई नदी के पानी सा
तिरोहित हो जायेंगे उनके गीत
उनके सपने, उनके उत्सव और वे भी।
ये कितनी बड़ी विडम्बना है
ये सब जानते हुए भी
पेड़ काटते हुए पकड़े गये हैं वे।

वे सचमुच नहीं काटते कोई पेड़
अगर उनमें से एक को
नहीं लाना होता
बहिन के ब्याह का सामान
दूजे की पत्‍नी ने माँगा है
इन सर्दियों के लिये
सस्ती सी ऊन का स्वेटर
तीजे को खरीदनी है
बच्चों की किताबें
चौथे को ढांख से गिरी

अपनी माँ का कराना है
शहर में मंहगा इलाज।
पाँचवे के पास तो नहीं है
दो जून रोटी के लिये कोई और भी चारा।
पर इनकी ये मजबूरियों और भावुकता
और ईमानदारी से भरा बयान
निर्दोष तो सिद्ध नहीं कर सकता इन्हें
माफ तो नहीं हो सकता इनका ये जुर्म।

कड़ी सज़ा बहुत जरूरी है
तेज़ी से खत्म हो रहे
जंगलों को बचाने के लिये
कहेंगे माननीय न्यायधीश
इन्हें न्याय सुनाते हुए।

और न्याय की यही असली भूमिका भी है
इनके जीवन में ।
पर्यावरण प्रेमियों के लिये भी
राहत का विषय है इनका पकड़ा जाना।

पुलिस और वन विभाग के
पत्रकारों के साथ
अच्छे सम्बन्धों का नतीजा है
कि विभाग के अफसरों की
कार्य कुशलता का
हुआ है खूब बखान सभी अखबारों में
और छपा है ये फोटू भी
फोटू में साफ दिख रही है
वन माफिया के पकड़े गये
इन आदमियों के चेहरे पे फैली थकान।

लगता है रात भर ढोते रहे हैं
इनके मजबूत कंधे
इन पेड़ों के कीमती शव
उस सड़क तक
जहाँ खुलती है उस पैसे वाले
लकड़ी के खरीददार की चमचमाती दुनिया
और हर बार वे लौट आते हैं वहीं से
अपनी अंधेरी दुनिया में ।

उन्हें नहीं पता
कहाँ जाते हैं
इन पेड़ों के
कीमती जिस्म।

किस हाट बिकते हैं
सचमुच उन्हें नहीं पता।

वे तो बस
काटते हैं पेड़।

ख्वाबों की शॉल !

सुबह सुबह हालातों की भेड़.
भरी पूरी नज़र आती है,
दिन भर
वक्त के उस्तरे की धार तेज़ कर
उम्मीद का ऊन निकाल कर
एक ख्वाब बुनता हूँ,
ताकि
हसरतों को हताशा की
ठिठुरन ना जकड़े,
ख्वाब की शॉल
जब हसरतों को ओढ़ाता हूं,
तो अक्सर,
उसका एक सिरा उधड़ा पाता हूं,
विश्वास मुझे समझाता है,
मन फिर उधेड़-बुन में लग जाता है,
इस तरह उम्मीद उधेड़ता बुनता जाता हूं,
हर दिन इसी सोच के साथ,
कभी ख्वाब पूरा बुन जाएगा,
सुबह उसका कोई सिरा खुला नज़र नहीं आयेगा ।

यूनिकवि: पंकज रामेन्दू

’पापा याद बहुत आते हो’ कुछ ऐसा भी मुझे कहो !

प्रस्तुत रचना एक गीत है जिसके रचनाकार निशीथ द्विवेदी की यह पहली दस्तक है। अक्टूबर 1979 मे जन्मे निशीथ शाजापुर (म.प्र) से तअल्लुक रखते हैं। निशीथ ने रासायनिक अभियांत्रिकी मे आइ आइ टी रुड़की से बी टेक और आइ आइ टी दिल्ली से एम टेक की उपाधि हासिल की है। कविताकर्म मे रुचि रखने वाले निशीथ सम्प्रति आयुध निर्माणी भंडारा मे कार्यरत हैं।
हम यहाँ माँ विषयक हृदयस्पर्शी कविताएं पहले भी पढ़ते रहे हैं, वही पिता के जिम्मेदारी और अनुशासन के तले दबे व्यक्तित्व का कोमल पक्ष अक्सर कविताओं मे उतनी प्रमुखता से उजागर नही हो पाता है। प्रस्तुत कविता अपने पारंपरिक कलेवर मे एक पिता की ऐसी ही अनुच्चारित भावनाओं मे छिपे प्रेम और विवशता को स्वर देती है।


माँ को गले लगाते हो, कुछ पल मेरे भी पास रहो !
’पापा याद बहुत आते हो’ कुछ ऐसा भी मुझे कहो !
मैनेँ भी मन मे जज़्बातोँ के तूफान समेटे हैँ,
ज़ाहिर नही किया, न सोचो पापा के दिल मेँ प्यार न हो!

थी मेरी ये ज़िम्मेदारी घर मे कोई मायूस न हो,
मैँ सारी तकलीफेँ झेलूँ और तुम सब महफूज़ रहो,
सारी खुशियाँ तुम्हेँ दे सकूँ, इस कोशिश मे लगा रहा,
मेरे बचपन मेँ थी जो कमियाँ, वो तुमको महसूस न हो!

हैँ समाज का नियम भी ऐसा पिता सदा गम्भीर रहे,
मन मे भाव छुपे हो लाखोँ, आँखो से न नीर बहे!
करे बात भी रुखी-सूखी, बोले बस बोल हिदायत के,
दिल मे प्यार है माँ जैसा ही, किंतु अलग तस्वीर रहे!

भूली नही मुझे हैँ अब तक, तुतलाती मीठी बोली,
पल-पल बढते हर पल मे, जो यादोँ की मिश्री घोली,
कन्धोँ पे वो बैठ के जलता रावण देख के खुश होना,
होली और दीवाली पर तुम बच्चोँ की अल्हड टोली!

माँ से हाथ-खर्च मांगना, मुझको देख सहम जाना,
और जो डाँटू ज़रा कभी, तो भाव नयन मे थम जाना,
बढते कदम लडकपन को कुछ मेरे मन की आशंका,
पर विश्वास तुम्हारा देख मन का दूर वहम जाना!

कॉलेज के अंतिम उत्सव मेँ मेरा शामिल न हो पाना,
ट्रेन हुई आँखो से ओझल, पर हाथ देर तक फहराना,
दूर गये तुम अब, तो इन यादोँ से दिल बहलाता हूँ,
तारीखेँ ही देखता हूँ बस, कब होगा अब घर आना!

अब के जब तुम घर आओगे, प्यार मेरा दिखलाऊंगा,
माँ की तरह ही ममतामयी हूँ, तुमको ये बतलाऊंगा,
आकर फिर तुम चले गये, बस बात वही दो-चार हुई,
पिता का पद कुछ ऐसा ही हैँ फिर खुद को समझाऊंगा!

मां को कैसा लगता होगा?

मां को कैसा लगता होगा?
जन्मा होगा जब कोई फूल
सारे दुःख भूली होगी
देख अपने लाल का मुंह ।

मां को कैसा लगता होगा?
बढ़ते हुए बच्चों को देख
हर सपने पूरी करने को
होगी तत्पर मिट जाने को।

मां को कैसा लगता होगा?
बच्चे हुए होंगे जब बड़े
और सफल हो जीवन में
नाम कमाएं होंगे ख़ूब ।

मां को कैसा लगता होगा?
बच्चे समझ कर उनको बोझ
गिनने लगे निवाले रोज़
देते होंगे ताने रोज़।

मां को कैसा लगता होगा?
करके याद बातें पुरानी
देने को सारे सुख उनको
पहनी फटा और पी पानी।

मां को कैसा लगता होगा?
होगी जब जाने की बारी
चाहा होगा पी ले थोड़ा
बच्चों के हाथों से पानी।

मां को कैसा लगता होगा?
जा बसने में बच्चों से दूर
टकटकी बांधें देखती होगी
उसी प्यार से भरपूर।

मां को कैसा लगता होगा?
मां को कैसा लगता होगा?

केशव तिवारी की कुछ कविताये !!

जन्म- 4 नवम्बर, 1963; अवध के जिले प्रतापगढ़ के एक छोटे से गाँव जोखू का पुरवा में।
‘इस मिट्टी से बना’ कविता-संग्रह, रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा (म.प्र.), सन् 2005; ‘संकेत’ पत्रिका का ‘केशव तिवारी कविता-केंद्रित’ अंक, 2009 सम्पादक- अनवर सुहैल। देश की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ व आलेख प्रकाशित। ‘आसान नहीं विदा कहना’ कविता-संग्रह, रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
सम्प्रति- बांदा (उ.प्र) में हिन्दुस्तान यूनीलीवर के विक्रय-विभाग में सेवारत।
सम्पर्क- द्वारा पाण्डेये जनरल स्टोर, कचेहरी चौक, बांदा (उ.प्र)
मोबाइल- 09918128631
ई-मेल- keshav_bnd@yahoo.co.in

गहरू गड़रिया

छियासी बरस का
सधा हुआ हैकल शरीर
बिना मडगाड की
पुरानी साइकिल
के हैंडिल पर
दो-चार कमरी रखे गहरू
हाज़िर हो जाते हैं
किसी भी कार परोजन में

पूरे इलाक़े में कहाँ क्या है
गहरू से जादा कौन जानता है
पहुँचते ही वहाँ काम में हाथ बँटाना
अवधी में टूटे-फूटे
छंद सवैया दोहराना
रह-रह कमरी के गुन गिनाना

ये इकट्ठा हुये लोग ही
गहरू का बाज़ार
जिनके सुख-दुःख
कई-कई पीढ़यों का
सजरा रहता है इनके पास

गहरू और
उनके बाज़ार का रिस्ता
तभी समझा जा सकता है
जब किसी के न रहने पर
फूट-फूटकर रोते हैं गहरू
और
सबके साथ बैठकर
सिर मुड़वाते हैं
शिखा-सूत्रधारी ब्राह्मणों के बीच
जब सिर मुड़वाये
तनकर खड़े होते हैं
तब तो
गड़ेरिया नहीं
सिर्फ गहरू होते हैं
अपनी संवेदना के साथ

जब कुछ दिन नहीं दिखते हैं
उनकी खोज-खबर लेते हैं लोग
अजब संसार है यह
गहरू उनकी कमरी
और उनके ग्राहकों का
जहाँ लोग कमरी से ही नहीं
गहरू की गहराई से भी
ताप ग्रहण करते हैं।

बाज़ार
मौज़ूदा दशक में बदरंग, अकालग्रस्त और बेउम्मीद जनपद को पुनर्प्रतिष्ठित करने वाले खुद्दार कवि हैं केशव तिवारी। केशव तिवारी की कविता ‘जनपद’ अंचल, जवार, सिवान की गँवई मिट्टी, देहाती बयार, वहाँ का रस, गंध, स्वाद और उबड़-खाबड़पन से उपजी है। कविता में जनपद को जीवित करना केशव के लिए मनमोहक फैशन या नास्टेलजिया नहीं, बल्कि उनकी स्वभाविक धड़कनों का हिस्सा है। यही उनकी आत्मा का मूल स्वभाव है। वे जनपद को सिर्फ जीवन के लिए नहीं जीते, बल्कि अपनी प्रौढ़ संवेदनशील शरीर पर चढ़े हुए उसके अथाह ऋण को उतारने के लिए जीते हैं। आजकल फैशन चल पड़ा है- बात करेंगे गम की, और रात काटेंगे रम की- केशव में यह दोहरापन एक सिरे से गायब है। केशव तिवारी की शब्द-सत्ता में जनपद की मौज़ूदगी चटक, सप्राण और गहरी है, लेकिन वही उनकी कलम की अटूट सीमा भी बन जाती है। केशव जनपद से बाहर निकलकर भी अपनी पूर्णता प्राप्त करेंगे।
-भरत प्रसाद
बाबा के लिये इसका मतलब
एक लद्दी बनिया था जो
गाँव-गाँव घूम कर
अनाज के बदले देता नमक
कुछ और छोटी-छोटी चीज़ें

पिता के लिये यह एक
भरा पूरा बाज़ार था जो
बुला रहा था ललचा रहा था

मेरे लिये यह एक तिलिस्म है
जिसका एक हाथ मेरी गर्दर पर
और दूसरा मेरी जेब में है।

एक सफ़र का शुरू रहना

तुम्हारे पास बैठना और बतियाना
जैसे बचपन में रुक-रुक कर
एक कमल का फूल पाने के लिए
थहाना गरहे तालाब को
डूबने के भय और पाने की खुशी
के साथ-साथ डटे रहना

तुमसे मिलकर बीते दिनों की याद
जैसे अमरूद के पेड़ से उतरते वक़्त
खुना गई बाँह को रह-रह कर फूंकना
दर्द और आराम को
साथ-साथ महसूस करना

तुमसे कभी-न-कभी
मिलने का विश्वास
चैत के घोर निर्जन में,
पलास का खिले रहना
किसी अजनबी को
बढ़कर आवाज़ देना
और पहचानते ही
आवाज़ का गले में ठिठक जाना

तुम्हारे चेहरे पर उतरती झुर्री
मेरे घुटनों में शुरू हो रहा दर्द
एक पड़ाव पर ठहरना
एक सफ़र का शुरू रहना।

आसान नहीं विदा कहना

आसान नहीं विदा कहना
गजभर का कलेजा चाहिये
इसके लिये
इस नदी से विदा कहूँ
भद्वर गर्मी और
जाड़े की रातों में भी
भाग-भाग कर आता हूँ
जिसके पास
इस पहाड़ से
विदा कहूँ जहाँ आकर
वर्षों पहले खो चुकी
माँ की गोद
याद आ जाती है
विदा कहूँ इन लोगों से
जो मेरे हारे गाढे खडे रहे
मेरे साथ
जिन्होंने बरदाश्त किया
मेरी आवारगी
हर दर्जे के पार
आसान नहीं है
विदा कहना।

सोमनाथ मे शिव !!

सोमनाथ मे शिव कि महिमा
अजब अनूठी हमने देखी|
जब-जब हुए आक्रमण इस पर,
भव्यता फिर से बढती देखी|
खंडन और विखंडन
प्रकृति का नियम है|
पुनः -पुनः निर्माण धारणा,
मानव कि उत्कंठा देखी|
सोमनाथ है तीर्थ अनूठा,
सूर्य प्रथम शिव दर्शन करता,
सूर्यास्त पर भी सूर्य यहाँ,
शिव उपासना करता है|
समुद्र यहाँ पर चरण पखारे,
शिव कि महिमा गाता है|
अजब अनूठा शमा यहाँ है,
बच्चा -बच्चा शिव गाता है|


--
Dr. A.Kirti vardhan
09911323732