Thursday, June 23, 2011

विपिन चौधरी की कुछ कवितायेँ !


आहुति::

किया था कभी प्रेम भी
अब हररोज़ उस प्रेम का हवन कुंड बना कर
अपने अरमानों की आहुति अर्पित करती हूँ
यही बेहतर रस्म है

शायद
फिर से जीवन की दिशा में सकुशल लौट आने की.


पानी और प्यास::

मेरी प्रीत को पानी का नाम दे कर
वह चार-दीवारी के गहरे कुँए में
तब्दील हो गया.
उसके बाद कभी
फिर से मेरी प्यास ने
दरियाओं का रूख नहीं किया.


धरती आकाश::

जब तुम आकाश रच रहे थे उस वक़्त मैं व्यस्त थी
अपनी धरती की ऊष्मा बचाने के लिये
तुमने ढेर सारे मोती बिखेर दिए
और कहा, चुनो
तब पहली बार लगा था चुनना कितना कठिन होता है

तुमने हाथ जोड़कर कहा, मांगो
और मैंने कुछ न मांगते हुए भी
मांग लिया था पूरा जहान

एक बार कहा था तुमने
चीज़े छोटी नहीं
हमारी कामनाएँ बड़ी होती हैं
मैंने उसी वक़्त उस वाक्य को
संसार का अंतिम वाक्य मान लिया था

कई और चीजों की तरह तुम यह भी मुझसे बेहतर जानते थे की मुझे
हर उस चीज़ से प्रेम है
जो कुदरत ने मेरी नजरों के
सामने रखी दी है बिना किसी लाग लपेट के
फिर भी तुम मुझे एक अ-कुदरती रिश्ते मे बाँध ले जाना चाहते थे

उन ठोस दिनों की ये बातें
किसी भरोसे की शुरुआत की तरह थी
जो किसी भी सूरत मे ख़तम होने के लिये नहीं थी.


एक उदास चेहरा::

जीवन के तमाम आरोह -अवरोह के बीच
अवसाद की जो महीन झिर्रियाँ हैं
उन्हीं के पास खड़ा है
वह उदास चेहरा

मछली की फांस की तरह
देर तक अटका रहता है
मन के भीतर जो अनगिनत पोखर बन गए हैं
कभी वे उसकी उँगलियों के निशान थे
जो समय के साथ गहरे और गहरे धंसते गए
आत्मा के जल से बूंद- बूंद भर कर
पोखर मे तब्दील होते चले गए

इतनी आत्मीयता के बावजूद
उस उदास चेहरे ने कोई ऐसा तार भी नहीं छोड़ा था कि
मैं खींच लेती उसे अपने पास
हम दोनों की दूर- नज़दीक की सभी विडम्बनाएं अपने चरम पर थी
और इन विडम्बनाओं में ज़रा भी आपसी सामंजस्य नहीं था

छोड़ आयी उस उदास चेहरे को दूर कहीं
अकेले, असहाय
मुझे भी अकेले ही गुज़रना था
अपने फैसलों की सतही सड़क पर.

जीवन से काटी गयी कुछ बारीक कतरनें ::
१.

मेरी खामोशी जितना कह सकती थी,
कह गई
तुम्हारे शब्द मेरी खामोशी को सोखते रहे
पर सीले नहीं हुए
और सूखे-मरुस्थल से शब्दों में
कुछ भी तो नहीं अटकता।


२.

कहीं ओट एक आवाज़ आई और
मैं इस वक्त भी उसके साथ थी
यह बेहतर पसंद का मामला था
जो दोनों तरफ से एक साथ उठना था
पर न जाने कुछ बुरे धब्बों ने अपना असर
हमारी मुलाकात पर छोडना ही था।


३.

तेज़ हवा मेरे साथ थी और
एक दिन बासी स्मृतियाँ
इन स्मृतियों की घनी पत्तियों का रंग कुछ काला पड़ गया था
पर मुझे उन्हें सुर्ख रखने का
हर सम्भव यत्न करना था
अपने लहू का रंग देकर भी।
४.

एक ऊँची उठती अज़ान के आस-पास
ही उगे थे कुछ अहसास
कुछ जन्म ले रहा था कहीं
यह शुरूआत थी या अंत
या कोई सपना जो बिल्ली के बच्चे की तरह ही दबे पाँव आया और

उन्हीं नाज़ुक कदमों से लौट गया।


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