Monday, June 20, 2011

ख्वाबों की शॉल !

सुबह सुबह हालातों की भेड़.
भरी पूरी नज़र आती है,
दिन भर
वक्त के उस्तरे की धार तेज़ कर
उम्मीद का ऊन निकाल कर
एक ख्वाब बुनता हूँ,
ताकि
हसरतों को हताशा की
ठिठुरन ना जकड़े,
ख्वाब की शॉल
जब हसरतों को ओढ़ाता हूं,
तो अक्सर,
उसका एक सिरा उधड़ा पाता हूं,
विश्वास मुझे समझाता है,
मन फिर उधेड़-बुन में लग जाता है,
इस तरह उम्मीद उधेड़ता बुनता जाता हूं,
हर दिन इसी सोच के साथ,
कभी ख्वाब पूरा बुन जाएगा,
सुबह उसका कोई सिरा खुला नज़र नहीं आयेगा ।

यूनिकवि: पंकज रामेन्दू

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