Saturday, June 25, 2011

अच्‍युतानंद मिश्र की कुछ कवितायेँ !

अच्युतानंद मिश्र मूलतः कवि हैं। इनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। कविता के साथ-साथ आलोचना में भी सक्रिय। हाल ही में इनकी एक आलोचना पुस्तिका 'नक्सलबारी आन्दोलन और हिंदी कविता' प्रकाशित हुई है। इन्होने 'नक्सलबारी आन्दोलन और हिंदी कविता' पर उल्लेखनीय कार्य किया है। चूँकि अच्युतानंद मूलतः बोकारो के हैं, इसलिए बिरसा मुंडा के सपनों की फसल में जब आग लगती है तो उसकी गर्मी महसूस करते हैं। जबकि सरकार पूरे देश को लगभग यह मनवा चुकी है कि अपने हिस्से की जमीन, अपने हिस्से का हवा-पानी माँगने वाले ये उलगुलानी आतंकवादी है, ऐसे में अच्युतानंद की कविता अंधेरे समय में रोशनी दिखाती है। इनसे संपर्क करने का पता है - पता- फ्लैट नं॰ 227, पॉकेट-1, सेक्टर-14, द्वारका, नई दिल्ली-110075
मो॰- ९२१३१६६२५६


मुसहर

गाँव से लौटते हुए
इस बार पिता ने सारा सामान
लदवा दिया
ठकवा मुसहर की पीठ पर

कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं।

बच्चे- 1

बच्चे जो कि चोर नहीं थे
चोरी करते हुए पकड़े गए
चोरी करना बुरी बात है
इस एहसास से वे महरूम थे

दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थें
कि भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे।

बच्चे -2

सड़क पर चलते हुए एक बच्चे ने घुमाकर
एक घर की तरफ पत्थर फेंका
एक घर की खिड़की का शीशा टूट गया
पुलिस की बेरहम पिटाई के बाद बच्चे ने कबूल किया
वह बेहद शर्मिंदा है उसका निशाना चूक गया।

किसान

उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने ही बेच डाली थी
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फल और मूठ
हुआ करता था

उसके घर में जो
नमक की आखरी डली बची है

वह इसी हल की बदौलत है

उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना कि उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानों का देश

नींद में अक्सर उसके पिता
दादा के बखार की बात करते
बखार माने
पूछता है उसका बेटा
जो दस रुपये रोज पर खटता है
नंदू चाचा की साइकिल की दुकान पर

दरकती हुए ज़मीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालने का हुनर
नहीं सीख पायेगा वह

यह उन दिनों की बात है
जब भाषा इतनी बंजर नहीं हुई थी
दुनिया की हर भाषा में वह
अपने पेशे के साथ जीवित था
तब शायद डी.डी.टी का चलन
भाषा में और जीवन में
इतना आम नहीं हुआ था

वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी दिवस

वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचायेंगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन

कई सदी बाद
धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जायेगा
देखो यह किसान का माथा है
सूंघों इसे
इसमें अब तक बची है
फसल की गंध
यह मिट्टी के
भीतर से खिंच लेता था जीवन रस


डायनासोर की तरह
नष्ट नहीं हुई उनकी प्रजाति
उन्हें एक-एक कर
धीरे-धीरे नष्ट किया गया।


आँख में तिनका या सपना

ताकती
क्या है रे मनिया
मिस जोजो की आंख में
सपना है की तिनका है
चुभता है जो आंख में?
सपना भी कहीं चुभता है ?

माई कहती थी
गरीबन के आंख में
सपना भी चुभता है
कभी कभी तो माई
अजबे बात करती
कहती भूख में गुल्लर मीठी

एक बार बाबा के साथ माई
घूमने गयी मेला
कोई चोर भाग रहा था
उसके पीछे भाग रहे थे लोग
डरकर माई ने पकड़ लिया बाबा का हाथ
और छोड़ना भूल गयी
वहीँ बाबा ने खींचकर
एक थप्पड़ लगाया
और कहा
कहाँ से सीख आई ये शहरातू औरतों वाली चाल ?

बाद को ये किस्सा माई
बाबा की तारीफ में
सबको सुनाती
हंस-हंस कर थोडा लजाती हुई
एकदम वैसे जैसे मिस जोजो
सुनाती हैं अपने प्रेमियों के
चटपटे किस्से
जब भी दिन के वक्त कभी
बाबा माई को मारते
तो माई झट से
चूल्हे के पास बैठकर
धूंआ कर लेती
उसकी आँख से झरझर
आंसू गिरतें
कहती इस बार लकड़ी बहुत गीली है
आँख मैं धूंआ लगता है
या कहती कोई तिनका
उड़कर गया है आँख में

मिस जोजो दिन के वक्त
मनिया को बहुत अच्छी लगती
पर रात के वक्त उनकी आँखे
टेसू के फूल की तरह लाल
डर के मारे छिप जाती
मनिया रसोई में

और थोड़ी देर बाद
एक बाबू आता सीधे घुस जाता
मिस जोजो के कमरे में
सुबह मिस जोजो की आँख से
वो लाली गायब
शायद वो बाबू ही ले जाता होगा
कोई जादूगर ही होगा!

आज सुबह से ही मिस जोजो की
आँख से
झर-झर गिर रहे हैं आंसू
मनिया कहती है
आँख में कोई तिनका गया होगा
मिस जोजो कहती हैं
धत् पगली !
तिनका आँख में जाए
तो इतने आंसू नहीं बहते
ये तो यूँ तब बहते हैं
जब टूटता है कोई सपना

मनिया हैरान है
सोचती है
माई की आँख में तो तिनका.....!

बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती

बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती
रात भर कोई
उसके सपनो में कहता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान!

के है रे?

खाट पर लेटा बुधवा
इंतज़ार करता है
उसका पठारी मन पूछता है
जाने कब होगा विहान
जाने कब निकलेगा ललका सूरज
जाने कब ढलेगी ये अँधेरी रात
और फैलने लगती है चुप्पी
जंगल नदी पेड़ पहाड़
सब ख़ामोश
ख़ामोशी में घूमती है धरती
धरती में पड़ती है दरारें
दरारों में कोई भरता है बारूद
और सपनो में कोई बोलता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान

और विहान नहीं होता
ललका सूरज नहीं निकलता !

ये उदासी से भरे दिन हैं
ये पृथ्वी की उदासी के दिन हैं
ये नदी पहाड़ की उदासी के दिन हैं
ये बुधवा की उदासी के दिन है

महज़ पेट की आग में नहीं
जल रहा है बुधवा
आग जंगल में लगी है
और पेट पर हाथ रख
पूछता है बुधवा
कहाँ हो बिरसा कहाँ हो शिबुआ ?
कहाँ हो हमार सिधु-कानु?

क्या पृथ्वी पर चल रहा यह कोई नाटक है

जिसका नायक जंगल उदास है
जिसमे परदे के पीछे से बोलता है कोई
उलगुलान उलगुलान उलगुलान !

और उठता है शोर
और डूबता है दिन
और लगती है आग
धधकता है जंगल
बुधवा का कंठ जलने लगता है

बुधवा सोचता है
बहुत बहुत सोचता है बुधवा इन दिनों
शिबुआ बागी हो गया है

बुधवा पूछता है
क्या यह नून की लड़ाई है
शिबुआ कहता है
यह नून से भी बड़ी लड़ाई है

शिबुआ की तलाश में
रोज़ आती है पुलिस
जब कभी छिप के आता है शिबुआ
तो हँस के कहता है दादा
मै तो खुद पुलिस की तलाश में हूँ

शिबुआ ठठाकर हँसता है

उसकी हँसी से गूँज उठता है जंगल
लगता है धरती की दरारों में कोई विस्फोट होने वाला है
उसकी हँसी डराती है बुधवा को

डर बुधवा को तब भी लगा था
जब माँ डायन हो गयी थी
दादा के मरने के बाद
माँ को बनना पड़ा था डायन

एक दिन अचानक माँ गायब हो गयी
उन्होंने कहा माँ को उठा ले गए हैं देवता
एक देसी मुर्गा और एक बोतल दारू
चढ़ाने पर
देवता ने लौटायी थी माँ की लाश
उस दिन बुधवा
देवता से बहुत डरा था

शिबुआ कहता है
दादा तुमको मालूम नहीं
ये देवता कौन लोग हैं?
ये बस मुर्गा और दारू ही नहीं

आदमी का ग़ोश्त भी खाते हैं
ये तुम्हारा-हमारा
ये पूरे जंगल का ग़ोश्त खाना चाहते हैं दादा

दादा उठो
उठो दादा
दादा तभी होगा विहान
तभी निकलेगा ललका सूरज

बुधवा को लगता है
शिबुआ अब भी बैठा है उसके पास
शिबुआ गा रहा है गीत

"आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ..........."

और बुधवा को लगता है
कोई उसे झकझोर रहा है
कोई हिला रहा है उसे
कोई जगा रहा है उसे
कोई कहता है दादा उठो
हमने ढूँढ़ लिया है देवता को
कल विहान होने पर
उसे लटका देंगे फाँसी पर
दादा तभी निकलेगा ललका सूरज

दादा ये जंगल आदमियों का है
आदमखोरो का नहीं

और छटपटाकर
कटे परवे सा उठ बैठता है बुधवा
के है रे? के है रे?
और गहरे अंधकार में
गूंजता है सन्नाटा

सन्नाटे में गूँजती है
शिबुआ की हँसी .....!

अख़बार में छपा है

सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ
छेड़ दी है जंग
सरकार मने........

शिबुआ कहता है
सरकार मने देवता
मुर्गा और दारू उड़ाने वाला देवता
आदमखोर देवता
तो क्या शिबुआ देवता से लड़ेगा
सोचते ही बुधवा की
छूटने लगती है कँपकपी

उसे माँ याद आती है
जो बचपन में उसके डरने पर
उसे बिरसा और सिद्धू-कानू के
किस्से सुनाती थी

लेकिन माँ डायन है
माँ को देवता ले गए
माँ के प्राण खींच लिए थे देवता ने

माँ क्यों बनी थी डायन?
क्या माँ भी देवता के खिलाफ लड़ रही थी ?

ये कैसी बातें सोचने लगा है बुधवा
छिः देवता को लेकर ऐसी बातें
नहीं सोचनी चाहिए उसे
पर कहीं देवता और सरकार...........

अभी विहान नहीं हुआ है
बस भोरुक्वा दिख रहा है बुधवा को
भोरुक्वा की रोशनी में
बुधवा जा रहा है जंगल की तरफ
उसके आगे जा रही है माँ
माँ के कंधे पर बैठा है
छोटका शिबुआ

छोटका शिबुआ गा रहा है
"आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ..........."

अभी विहान नहीं हुआ है !

बाढ़

हर तरफ़ अथाह जल
जैसे डूब जाएगा आसमान
यही दिखाता है टी०वी०
एक डूबे हुए गाँव का चित्र
दिखाने से पहले
बजाता है एक भड़कीली धुन
और धीरे-धीरे डूबता है गाँव
और तेज़ बजती है धुन...

एक दस बरस का अधनंगा बच्चा
कुपोषित कई दिनों से रोता हुआ
दिखता है टी०वी० पर
बच्चा डकरते हुए कहता है--
भूखा हूँ पाँच दिन से
कैमरामैन शूट करने का मौक़ा नहीं गँवाता
बच्चा, भूखा बच्चा
पाँच दिन का भूखा बच्चा
क़ैद है कैमरे में ...

टी०वी० पर फैलती तेज़ रोशनी
बदल जाता है दृश्
डूबता हुआ गाँव डूबता जाता है
बच्चा, भूखा बच्चा
रह जाता है भूखा
हर तरफ़ है अथाह जल
हर तरफ़ है अथाह रौशनी ...

ख़बर

डूबता हुआ गाँव एक ख़बर है
डूबता हुआ बच्चा एक ख़बर है
ख़बर के बाहर का गाँव
कब का डूब चुका है
बच्चे की लाश फूल चुकी है
फूली हुई लाश एक ख़बर है ...

प्रतिनिधि

जब डूब रहा था सब-कुछ
तुम अपने मज़बूत क़िले में बंद थे
जब डूब चुका है सब-कुछ
तुम्हारे चेहरे पर अफ़सोस है
तुम डूबे हुए आदमी के प्रतिनिधि हो...

भूलना

एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है
एक आदमी यह दृश् देख कर
रो पड़ता है
एक आदमी आँखें फेर लेता है
एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है
याद रखो
वे तुम्हें भूलना सिखाते हैं ...

उम्‍मीद

एक गेंद डूब चुकी है
एक पेड़ पर बैठे हैं लोग
एक पेड़ डूब जाएगा
डूब जाएंगी अन् की स्मृतियाँ
इस भयंकर प्रलयकारी जलविस्तार में
एक-एक कर डूब जाएगा सब-कुछ ...
एक डूबता हुआ आदमी
बार-बार ऊपर कर रहा है अपना सिर
उसका मस्तिष् अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है लगातार
बचने की उम्मीद बाक़ी है अब भी ...


ढ़ेपा
रात को
पुरानी कमीज के धागों की तरह
उघड़ता रहता है जिस्
छोटुआ का

छोटुआ पहाड़ से नीचे गिरा हुआ
पत्थर नहीं
बरसात में मिटटी के ढेर से बना
एक भुरभुरा ढेपा* है
पूरी रात अकड़ती रहती है उसकी देह
और बरसाती मेढक की तरह
छटपटाता रहता है वह

मुँह अंधेरे जब छोटुआ बड़े-बड़े तसलों पर
पत्थर घिस रहा होता है
तो वह इन अजन्मे शब्दों से
एक नयी भाषा गढ़ रहा होता है
और रेत के कणों से शब् झड़ते हुए
धीरे-धीरे बहने लगते हैं

नींद स्वप् और जागरण के त्रिकोण को पार कर
एक गहरी बोझिल सुबह में
प्रवेश करता है छोटुआ
बंद दरवाजों की छिटकलियों में
दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ
दरवाजे के भीतर की मनुष्यता से बाहर जाता है
पसीने में डूबती उसकी बुश्शर्ट
सूरज के इरादों को आंखें तरेरने लगती हैं

और तभी छोटुआ
अनमनस् सा उन बच्चों को देखता है
जो पीठ पर बस्ता लादे चले जा रहे हैं

क्या दूध की बोतलें,अखबार के बंडल
सब्जी की ठेली ही
उसकी किताबें हैं...
दूध की खाली परातें
जूठे प्लेट, चाय की प्यालियां ही
उसकी कापियां हैं...
साबुन और मिट्टी से
कौन सी वर्णमाला उकेर रहा है वह ...

तुम्हारी जाति क्या है छोटुआ
रंग काला क्यों है तुम्हारा
कमीज फटी क्यों है
तुम्हारा बाप इतना पीता क्यों है
तुमने अपनी कल की कमाई
पतंग और कंचे खरीदने में क्यों गंवा दी
गांव में तुम्हारी माँ,बहन और छोटा भाई
और मां की छाती से चिपटा नन्हका
और जीने से उब चुकी दादी
तुम्हारी बाट क्यों जोहते हैं...
क्या तुम बीमार नहीं पड़ते
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्यों होते जा रहे हो...

बरतन धोता हुआ छोटुआ बुदबुदाता है
शायद खुद को कोई किस्सा सुनाता होगा
नदी और पहाड़ और जंगल के
जहां दूध की बोतलें जाती हैं
अखबार के बंडल
वहां हर पेड़ पर फल है
और हर नदी में साफ जल
और तभी मालिक का लड़का
छोटुआ की पीठ पर एक धौल जमाता है -
साला बिना पिए ही टुन् है
एत गो छोड़ा अपना बापो के पिछुआ देलकै
मरेगा साला हरामखोर
खा-खा कर भैंसा होता जा रहा है
और खटने के नाम पर
माँ और दादी याद आती है स्साले को

रेत की तरह ढहकर
नहीं टूटता है छोटुआ
छोटुआ आकाश में कुछ टूंगता भी नहीं
माँ को याद करता है बहन को
बाप तो बस दारू पीकर पीटता था

छोटुआ की पैंट फट गई है
छोटुआ की नाक बहती है
छोटुआ की आंख में अजीब सी नीरसता है
क्या छोटुआ सचमुच आदमी है
आदमी का ही बच्चा है ...
क्या है छोटुआ

पर
पहाड़ से लुढकता पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिट्टी के ढेर से बना ढेपा है वह
धीरे-धीरे सख् हो रहा है वह
बरसात के बाद जैसे मिट्टी के ढेपे
सख् होते जाते हैं
सख् होता जा रहा वह
इतना सख्
कि गलती से पाँव लग जाएँ
खून निकल आए अंगूठे से ...


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