Thursday, October 14, 2021

सरस्वती पत्रिका “अप्रैल-जून 2021 | 101” में प्रकाशित रविनन्दन सिंह की कुछ रचनाएँ ।

 १- हर प्रश्न का उत्तर समय

हर प्रश्न का उत्तर समय है,
समय की पदचाप सुनना

कुछ लोग होंगे जो तुम्हारी
प्रगति से ईर्ष्या करेंगे,
कुछ लोग होंगे,
पीठ पीछे व्यंग्य और ताने कसेंगे,
इस तरह संसार के भ्रम-
जाल में तुम मत उलझना।

जिन्दगी की राह में
कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे
जो तुम्हारी अस्मिता को
एकदम खारिज करेंगे,
मुस्करा कर सर झुकाना,
किन्तु मत परवाह करना।

सफर में धकने लगो तो
बैठ जाना छाँव में,
अपने हाथों आप ही
मरहम लगाना पाँव में,
तुम कभी विचलित न होना,
लक्ष्य का संधान करना।

एक दिन आएगा चलकर
जिन्दगी की राह में,
फिर वही सब जन तुम्हें
आकर भरेंगे बाँह में,
ग्रंथियों को त्यागकर
सबको सहज स्वीकार करना।

 

२- यह जीवन

वैसा जीवन नहीं मिला पर
यह जीवन भी अच्छा है।

इंद्रधनुषी सपने पाले
आधा जीवन गुजर गया,
जितना सोचा था आँचल में
उतना इच्छित मिला,
नंदन कानन नहीं मिला पर
यह कानन भी अच्छा है।

बड़ी बड़ी आशाएँ टूटीं
कई जंग में हार मिली,
फिर भी खड़ा हुआ पैरों पर
फिर कश्ती को धार मिली,
मन का आँगन नहीं मिला पर
यह आँगन भी अच्छा है।

प्रतिबिम्बों की बात मानकर
बिम्बों का शृंगार करे,
प्रतिदिन उसका रूप सँवारे
सपनों को साकार करे
ऐसा दरपन नहीं मिला पर
यह दरपन भी अच्छा है।

इस बारिश में साल रहा है
मन का सूनापन,
जैसे खौल रहा चूल्हे पर
तसले में अदहन,
मीत अगर है पास कहीं तो
यह सावन भी अच्छा है।

राजा की गोदी से उतरा
बन जाता है ध्रुवतारा,
एक गाय के लिए द्रोण भी
जाता है बस दुत्कार,
नहीं राजपद तो आचार्य का
यह आसन भी अच्छा है।

 

३- पूछ रहा शम्बूक राम से

पूछ रहा शम्बूक राम से
कैसी प्रभु की पीर।

जो कहते थे रामराज्य में
हिंसा-द्वेष नहीं होगा,
एक घाट पर सिंह मेमना
कोई भेद नहीं होगा,
सोने के चम्मच से राजन
जीम रहे हैं खीर।

सुशासन पर प्रवचन करते
कुशासन पर वास,
बगुलों को सम्मानित करते
हंसों को वनवास,
अपराधी की जाति पूछकर
चला रहे हैं तीर।

रंगमहल में होता उत्सव
जनता में सन्त्रास,
बहुत दिनों से डोल रहा है
सत्ता पर विश्वास,
तड़प रहे लोगों को केवल
बाँट रहे हैं धीर

राज-धर्म दोनों ने मिलकर
फेंका ऐसा जाल,
झूम रहे हैं भक्त नशे में
आश्रम मालामाल,
खींच रहे हैं दोनों मिलकर
जनमानस की चोर

प्रश्नचिह्न भी काँप गया
बाली के मारे जाने से,
सिय को अग्निपरीक्षा में
हर बार उतारे जाने से,
दृश्य देखकर जन-जन की
आँखों से बहता नीर।

 

४- पहले पहले पग धरना

जीवन में आसान बहुत है
बने हुए पथ पर चलना।
बहुत कठिन है नयी लीक पर
पहले पहले पग धरना।

बिना चुनौती जीवन क्या है
नन्हा अंकुर भी कहता,
मौसम के निर्मम प्रहार को
जीवन भर सहता रहता,
हार मानकर नहीं जानता
परदे के पीछे रहना।

पर्वत से सरिता निकली थी
ज्योंही अपने घर से,
अलसायी थी अभी राह में
जा टकराई पत्थर से,
धीरे धीरे सीख गयी वह
दुर्गम प्रान्तर से बहना।

अभी विहग ने पर खोला था
तेज हवा ने गिरा दिया,
उसका साहस देख पवन ने
फिर कंधे पर उठा लिया,
आज विहग तूफानों में भी
समझ चुका है थिर रहना।

ज्योहीं मैंने दीप जलाया
अँधियारे ने डरा दिया,
यद्यपि नन्हा सा दीपक था
लेकिन तम को हरा दिया,
मैंने भी अब सीख लिया है।
दीपक बाती सा जलना।

 

५- इतिहास की निमर्म कहानी

हर बार दुहराई गयी
इतिहास की निर्मम कहानी।

जिस नदी की धार थी
तूफान
से भी तीव्रतर,
एक समय ऐसा भी आया
वह नदी बहती है मंथर,
गुम हुई है आज वह भी
भूलकर अपनी रवानी।

वृक्ष तनकर आसमां से
बात करता था कभी,
एक बड़ा विस्तार पाकर
छाँव देता था कभी,
ठूंठ होकर आज वह भी
कह रहा दुनिया है फ़ानी।

बाज जो आकाश में
उड़ता था पाँखें खोलकर,
हुक्म देता आसमाँ को
शब्द भारी बोलकर,
घायल स्वरों में आज वह भी
माँगता है बूँद पानी।

वन को वह दिन याद है
जब सिंह ने दहला दिया,
आज जब घायल हुआ
साजिश सियारों ने किया,
दृश्य अपनी साँस रोके
देखती है रातरानी।

भग्न एक अवशेष की
भीतें हमेशा आह भरतीं,
वक्त का उन्नत किला भी
रोज कहता आपबीती,
जो खड़ा है वह गिरेगा
हो भले सिकंद सानी।



 
 
 
 
 

 

 

पूर्व सम्पादक 'हिन्दुस्तानी' शोध त्रैमासिक ।
प्रतिष्ठित लेखक, कवि एवं समीक्षक
ई-मेल singhravi.ald@gmail.com
मोबाइल : 09454257709

 

Wednesday, October 6, 2021

"मेरी बेटी"

*बेटियों पर तो बहुत कविताएं सुनी है,लेकिन एक सास द्वारा रचित अपनी बहू पर यह कविता बहुत ही प्यारी व निराली हैं*---
       
एक बेटी मेरे घर में भी आई है,
सिर के पीछे उछाले गये चावलों को,
माँ के आँचल में छोड़कर,
पाँ के अँगूठे से चावल का कलश लुढ़का कर,
महावर रचे पैरों से,महालक्ष्मी का रूप लिये,
बहू का नाम धरा लाई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

माँ ने सजा धजा कर बड़े अरमानों से,
दामाद के साथ गठजोड़े में बाँध विदा किया,
उसी गठजोड़े में मेरे बेटे के साथ बँधी,
आँखो में सपनों का संसार लिये
सजल नयन आई है।

एक बेटी मेरे घर भी आई है।

किताबों की अलमारी अपने भीतर संजोये,
गुड्डे गुड़ियों का संसार छोड़ कर,
जीवन का नया अध्याय पढ़ने और जीने,
माँ की गृहस्थी छोड़,अपनी नई बनाने,
बेटी से माँ का रूप धरने आई है।

एक बेटी मेरे घर भी आई है।

माँ के घर में उसकी हँसी गूँजती होगी,
दीवार में लगी तस्वीरों में, 
माँ उसका चेहरा पढ़ती होगी,
यहाँ उसकी चूड़ियाँ बजती हैं,
घर के आँगन में उसने रंगोली सजाई है।

एक बेटी.मेरे घर में भी आई है।

शायद उसने माँ के घर की रसोई नहीं देखी,
यहाँ रसोई में खड़ी वो डरी डरी सी घबराई है,
मुझसे पूछ पूछ कर खाना बनाती है,
मेरे बेटे को मनुहार से खिलाकर,
प्रशंसा सुन खिलखिलाई है।

एक बेटी.मेरे घर में भी आई है।

अपनी ननद की चीज़ें देखकर,
उसे अपनी सभी बातें याद आईहैं,
सँभालती है,करीने से रखती है,
जैसे अपना बचपन दोबारा जीती है,
बरबस ही आँखें छलछला आई हैं।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

मुझे बेटी की याद आने पर "मैं हूँ ना",
कहकर तसल्ली देती है,
उसे फ़ोन करके मिलने आने को कहती है,
अपने मायके से फ़ोन आने पर आँखें चमक उठती हैं
मिलने जाने के लिये तैयार होकर आई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

उसके लिये भी आसान नहीं था,
पिता का आँगन छोड़ना,
पर मेरे बेटे के साथ अपने सपने सजाने आई है, 
मैं  खुश हूँ ,एक बेटी जाकर अपना घर बसा रही,
एक यहाँ अपना संसार बसाने आई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।।

साभार : वन्दना रस्तोगी