Wednesday, October 6, 2021

"मेरी बेटी"

*बेटियों पर तो बहुत कविताएं सुनी है,लेकिन एक सास द्वारा रचित अपनी बहू पर यह कविता बहुत ही प्यारी व निराली हैं*---
       
एक बेटी मेरे घर में भी आई है,
सिर के पीछे उछाले गये चावलों को,
माँ के आँचल में छोड़कर,
पाँ के अँगूठे से चावल का कलश लुढ़का कर,
महावर रचे पैरों से,महालक्ष्मी का रूप लिये,
बहू का नाम धरा लाई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

माँ ने सजा धजा कर बड़े अरमानों से,
दामाद के साथ गठजोड़े में बाँध विदा किया,
उसी गठजोड़े में मेरे बेटे के साथ बँधी,
आँखो में सपनों का संसार लिये
सजल नयन आई है।

एक बेटी मेरे घर भी आई है।

किताबों की अलमारी अपने भीतर संजोये,
गुड्डे गुड़ियों का संसार छोड़ कर,
जीवन का नया अध्याय पढ़ने और जीने,
माँ की गृहस्थी छोड़,अपनी नई बनाने,
बेटी से माँ का रूप धरने आई है।

एक बेटी मेरे घर भी आई है।

माँ के घर में उसकी हँसी गूँजती होगी,
दीवार में लगी तस्वीरों में, 
माँ उसका चेहरा पढ़ती होगी,
यहाँ उसकी चूड़ियाँ बजती हैं,
घर के आँगन में उसने रंगोली सजाई है।

एक बेटी.मेरे घर में भी आई है।

शायद उसने माँ के घर की रसोई नहीं देखी,
यहाँ रसोई में खड़ी वो डरी डरी सी घबराई है,
मुझसे पूछ पूछ कर खाना बनाती है,
मेरे बेटे को मनुहार से खिलाकर,
प्रशंसा सुन खिलखिलाई है।

एक बेटी.मेरे घर में भी आई है।

अपनी ननद की चीज़ें देखकर,
उसे अपनी सभी बातें याद आईहैं,
सँभालती है,करीने से रखती है,
जैसे अपना बचपन दोबारा जीती है,
बरबस ही आँखें छलछला आई हैं।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

मुझे बेटी की याद आने पर "मैं हूँ ना",
कहकर तसल्ली देती है,
उसे फ़ोन करके मिलने आने को कहती है,
अपने मायके से फ़ोन आने पर आँखें चमक उठती हैं
मिलने जाने के लिये तैयार होकर आई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

उसके लिये भी आसान नहीं था,
पिता का आँगन छोड़ना,
पर मेरे बेटे के साथ अपने सपने सजाने आई है, 
मैं  खुश हूँ ,एक बेटी जाकर अपना घर बसा रही,
एक यहाँ अपना संसार बसाने आई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।।

साभार : वन्दना रस्तोगी

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