Sunday, February 27, 2011

छुपाकर दिल-ओ-ज़ेहन के छाले रखिये!

प्रस्तुत रचना एक गज़ल है। इसकी रचनाकार वंदना सिंह हैं अपना परिचय देते हुए खुद उनका कहना है कि ’समझ नहीं पा रही हूँ कि परिचय क्या दूं? फिलहाल इतना ही कहना चाहूंगी कि मैं उत्तरप्रदेश के मेरठ शहर से हूँ। .सितम्बर 1989 का मेरा जन्म है। स्कूल शिक्षा हासिल करने के पश्चात 2008 में भारत से अमेरिका आना हुआ और फिलहाल कॉलेज में हूँ। कविता से प्रेम स्कूल के समय कापी-किताबो के पीछे लिखते-लिखते कब डायरी तक आया पता ही नहीं चला। पर सही रूप से जुड़ने और समझने का मौका नेट की दुनिया ने दिया। इसलिए 2009 को अपनी शुरुवात मानती हूँ। " कागज़ मेरा मीत है ..कलम मेरी सहेली" नामक ब्लॉग पर निरंतर अपनी रचनाये प्रकाशित करती रहती हूँ। कुछ करीबी कवि-मित्रो की सीख और सराहना हमेशा प्रेरित करती रही है। उन सबका दिल से धन्यवाद करना चाहती हूँ! ’बुजुर्ग लाये हैं दिलों के दरिया से मोहब्बत की कश्ती निकाल कर, हम भी मल्लाह बस उसी सिलसिले के हैं।’

गज़ल

लबो पे हँसी, जुबाँ पर ताले रखिये,
छुपाकर दिल-ओ-ज़ेहन के छाले रखिये

दुनिया में रिश्तों का सच जो भी हो,
जिन्दा रहने के लिए कुछ भ्रम पाले रखिये

बेकाबू न हो जाये ये अंतर्मन का शोर ,
खुद को यूँ भी न ख़ामोशी के हवाले रखिये

बंजारा हो चला दिल, तलब-ए-मुश्कबू में
लाख बेडियाँ चाहे इस पर डाले रखिये

ये नजरिये का झूठ और दिल के वहम
इश्क सफ़र-ए-तीरगी है नजर के उजाले रखिये

मौसम आता होगा एक नयी तहरीर लिए,
समेटकर पतझर कि अब ये रिसाले रखिये

कभी समझो शहर के परिंदों की उदासी
घर के एक छीके में कुछ निवाले रखिये

तुमने सीखा ही नहीं जीने का अदब शायद,
साथ अपने वो बुजुर्गो कि मिसालें रखिये

(मुश्कबू= कस्तूरी की गंध
रिसाले = पत्रिका)

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