Saturday, March 26, 2011

कुछ तो बोलो दोस्त !

जैसे कि सबकुछ पहले से तय था
एक- एक पात्र ने जैसे रटा हुआ था...
अपना-अपना संवाद
अपना-अपना किरदार
साफगोई से...
पूरे वक्त पर, सबने निभाई थी अपनी जिम्मेदारी
पूरे अदद से
अदना-कदना, औने-पौने सबने
हां, सबने तकरीबन छीले थे मेरे ज़ख्म
जैसे कि नीयति का साथ देने के लिए बाध्य हों सबके सब
जैसे कि तय था रामायण का घटित होना
राम का वनवास, सीता का धरति में समाहित हो जाना
तय था केतकि का जिद्द करना...
जनक का पुत्रमोह भी तय था
और शायद तय था श्रवण कुमार का मातृ-पितृ सेवा में विघ्न होना
लेकिन ये कौन है जो यूं खेल रहा है
शतरंज जिंदगी का?
पहले से ही क्यों तय होती हैं चीजें?
और अगर तय ही होता है सबकुछ
तो फिर ये भ्रम कौन फैलाता है...
कि करो-करो कर्म करो...
फल मिलेगा...
ये कौन सा कर्म है जो पहले से तय नहीं होता?
बताओ कोई, मैं उधेड़बून में हूं

No comments:

Post a Comment