Wednesday, March 2, 2011

प्यार

तुम्हें प्यार करने के बाद
मैं बाहर आया।

सड़क पर दौड़ते
रिक्शा, कार और
हांफते हुए आदमी को देखा
और वापिस चला आया।

मैं, अभी भी
संतुलित नहीं था,
मेरे हाथ-पांव
अलग होते जा रहे थे।
हर जाना-पहचाना चेहरा
मुझे, अजनबी लग रहा था।

मैं भागा-भागा
चट्टान केपास पहुंचा
उसे सहलाते हुए बताया कि
खिसकना, तुम्हारी नियति है।
मेरे दिमाग में
अभी भी एक कीड़ा
कुलबुला रहा था
झड़बेरी की शाखों पर
लटके गिरगिट और
अमलतास की फलियां
मुझे एक जैसी दिख रही थीं।

मैं तेज घूमती चाक के
पास पहुंचा
और उससे पूछा-
क्या तुम एक छोटी धरती
मेरे लिए नहीं ढाल सकतीं?
मुझे लगता है -
मैं अपनी नहीं
अपने पुरखों की धरती पर
सफर कर रहा हूं।

कीड़े की कुलबुलाहट
और बढ़ रही थी।
मैं भागा-भागा
वापिस लौट आया।
और दीवार के सहारे
खड़ा होकर
सोचने लगा कि
मैंने क्यों कर
तुम्हें प्यार किया।

- आलोक पंडित

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