Tuesday, January 18, 2011

मैं टूटे बर्तन के जैसी लगातार रिसती जाती हूँ !


प्रस्तुत कविता रंजना डीन ने लिखी है रंजना डीन पिछले तीन वर्षों से लखनऊ (उ॰प्र॰) के एक प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। व्यावसायिक रूप से कलाकार हैं। इन्हें प्राकृतिक सौंदर्य, फोटोग्राफी, कला एव कविता लेखन में बेहद रूचि है। रंजना डीन की सघन अनुभूतियों से सजी यह कविता मनोभावों के वैसे ही गाढ़े रसायन मे घुलती जाती है।




कुछ सूनापन कुछ सन्नाटा
मन ने नहीं किसी से बाँटा
दर्द न जाने क्यों होता है
दीखता नहीं मुझे वो काँटा।
गुमसुम-सी खिड़की पर बैठी
आते जाते देखूँ सबको
अपने से सारे लगते हैं
तुम बोलो पूजूँ किस रब को।
पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो
तो यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।
नहीं लोग अपने से लगते
नहीं किसी से कह सकते सब
सब इंसा मौसम के जैसे
जाने कौन बदल जाये कब?
दौड़ में ख़ुद की जीत की ख़ातिर
कितने सर क़दमों के नीचे
हुनर कोई भी काम न आया
सारे दबे नोट के नीचे।
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।

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