Tuesday, December 18, 2012

हसरतें !

सुनो
मुझ पर उँगलियाँ उठाने से पहले ,

अपनी शराफत मे कुछ रौशनी घोलो और नमी भी
फिर अपने हिस्से की शाइस्तगी तुम रखो
मेरे हिस्से की सियाही मै रखती हूँ ,

जिस्म धागों मे बंधा कोई धर्मग्रंथ नहीं होता
प्रकृति को जीना कोई त्रासदी नहीं होती
और हसरतें एक उम्र के बाद भी हसरतें ही होती हैं ,

रगों मे उगी धूप किसी साये की तलाश मे है
जिस तरह समंदर को थामना कभी मुमकिन नहीं होता
वैसे ही जिस्म छीली हुई ख़्वाहिशों की कब्रगाह नहीं होती ,

तकलीफ अब लहू मे सुलगने सी लगी है
हमनफ़ज मेरे !!!

 - अर्चना राज

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