Sunday, April 10, 2011

शब्दहीन हूँ ..................

शब्दहीन हूँ ख़ुद के लिए आज उस तरह
थी निरुत्तर इक दिन मैं सब को जिस तरह
किए उन्होंने प्रश्न तेरे जाने पे किस तरह
ख़ुद मैंने भी पूछे तुझसे उस तरह
......विश्वास मेरा मुझे कहता है इन जैसी नहीं हूँ मैं ||

जब जा रही थी जां तब तो कोई आया
जा रहा था प्यार तो अपनों ने भी रुलाया
शोक मनाने लेकिन चौथे हर कोई आया
यही रोये सारे के मैंने क्यों बचाया
......ये कहते मुझको 'अपनी', पर उनकी कहाँ हूँ मैं ||

अब लोग कहे जता उसे अब-भी लगाव है
इस दुनिया में घाव के बदले सब देते घाव है
तू भी जफा कर, खेल के जैसा खेला वो दांव है
मैं सोचूँ के ये प्यार कहाँ, ये तो अहंभाव* है
......मेरा 'अहम्'* ये सुनकर कहने लगा के 'तुझे में नहीं हूँ मैं' ||

क्यों सब कहते मैं हार गई, उसकी ये जीत है
जो भागे है वो आगे है, दुनिया की रीत है
कैसे समझाऊँ ये दौड़ नहीं ये मेरी प्रीत है
जो खुश है वो मेरी हार में, मेरी भी जीत है
......फिर भी जिद है तो लो सुन लो के, हार गई हूँ मैं ||

प्रीत हुई इक बार मन में अब ये कैसा क्लेश
प्रीत हो जब कोई लगे भला वरना रखते हैं द्वेष ?
गणित ये जग समझ पायी, जाने कैसा ये पेंच
मैं तो बदलूँ , बदले दुनिया, चाहे बदले ईश
......प्रीत कहे इस जग में क्या अब कहीं नहीं हूँ मैं ? ||

- अनिरुद्ध "अभय"

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