Friday, April 1, 2011

भालू नाच !

बचपन में गर्म लोहे की छड़ से
दागे गये तलुओं की
पीड़ा की स्मृति में
मदारी के डंडे के डर से
नाचता है भालू
डमरू की धुन पर
उसके नाच में नाच रही होती है
उसकी पीड़ा और भूख
एक पीड़ा और भूख
नाच रही होती है मदारी की आँख
और जमूरे के पेट में भी

मेरे बचपन के ये बिंब
मेरे साथ घट रहे हैं
पेट पालने की जिद
और ज्यादा इकट्ठा करने की हवा में
मैं नाचता हूँ साहबों और नेताओं के आगे
बिना डंडा दिखाये या डमरू बजाये ही

आदमी ऐसे ही बनता है भालू
और नाचता रहता है मजमे में ।

- रमाशंकर सिंह

1 comment:

  1. शुभागमन...!
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    ये पत्नियां !

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