Friday, April 22, 2011

जब हम तुम मिलते हैं !

पहाड़ों से फिसलता वह जल प्रपात
रास्ते के हर पत्थर को
करता है द्रवित
बारिश जहाँ होती है
प्यास बुझती है सब की
पक्षपात रहित बारिश !

जब हम और तुम मिलते हैं
शायद ऐसा ही होता है कुछ कुछ.....

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हम और तुम
जब बिल्कुल चुप हो जाते है
जब हो जाते हैं बिल्कुल सहज
तभी लुटा पाता हूँ मैं अपना सब कुछ

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हम और तुम
अगल- बगल बैठे
जब कुछ नहीं कर रहे होते है तब
बहुत कुछ कर रहे होते हैं

बहुत अन्दर सब कुछ उकेरती
एक नदी बह रही होती है चुपचाप!

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इस कमरे में कोई दीवार नहीं
दरअसल
यह कमरा ही नहीं है सही मायनो में
सिर पर आसमान का एक छोटा सा टुकड़ा है
पैर के नीचे दो गज जमीन
और चारों ओर विस्तार असीम...
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सचमुच !
कित्ता बड़ा है यह कमरा
जो दरअसल एक कमरा नहीं है ‌और
जहाँ हम, तुम और एक पूरी दुनिया रहती है।

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हम और तुम
जानते ही है यह कि
हममे तुममें जो असमान्य है
वह दरअसल कितना सामान्य है
‌और जो सचमुच है सहज
वह कितना जटिल पर यह जानने समझने में
हमने एक जिन्दगी गुजार दी......

प्यार में अक्सर ऐसा होता है
एक जिन्दगी गुजर जाती है
जानने, समझने
सहज होने में !

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