Wednesday, April 6, 2011

गज़ल: मेरी आंखों मे जरा इंक़लाब रहने दे !

किसी जगह के लिए इंतख़ाब रहने दे
मैं एक सवाल हूँ मेरा जवाब रहने दे।


मैं जानता हूँ तू लिबास पसंद है लेकिन
मैं बेनक़ाब सही, बेनक़ाब रहने दे।


मैं बाग़ी नहीं पर उसके समझने के लिए
मेरी आंखों मे जरा इंक़लाब रहने दे।


तमाम उम्र गुनहगार जिया हूँ या रब
मेरे हक़ में मगर एक सवाब रहने दे।


तमाम शहर मेरे ख़्वाब तले सोया है
मत बेदार कर, तू ज़ेर-ए-ख़्वाब रहने दे।


- रचनाकार : वसीम अकरम

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