Thursday, April 14, 2011

सुनो यह बारिश के बादलों की गर्जन नहीं है !

मूलतः इंजीनियरिंग के छात्र आस्तीक वाजपेयी की ये कविताएँ जब मैंने पढ़ी तो आपसे साझा करने से खुद को रोक नहीं पाया। इनके बारे में मैं अधिक क्या कहूँ ये कविताएँ अपने आपमें बहुत कुछ कहती हैं- इतिहास, वर्तमान, जीवन, मरण- कवि की प्रश्नाकुलता के दायरे में सब कुछ है और देखें तो कुछ भी नहीं। होने न होने का यही द्वंद्व उनकी कविताओं को एक खास भंगिमा देता है। आइये पढते हैं-


1.
ऐसा ही होता है

ऐसा ही होता है।
समय मे भागता अश्वत्थामा
भूल जाएगा कि वह क्यों भागता है,
भागना ही बच जाएगा, सब खत्म हो जाएगा।

प्रेम‘-किससे किया था ?
वह कौन है जो मुझे देखती है।
मैं भूल चुका हूँ।

मृत्यु‘-वह शुरु हो गयी थी मेरे पैदा होते ही,
खत्म हो पाएगी या नहीं इस घास पर पड़ी
ओस की चमक।

यह अन्धकार मेरा पहला अन्धकार
नहीं है, इसके पीछे से मेरी यादे
मुझे, भाले मार रही है। कुत्तों की तरह झुँड में
धावा बोलती है, किसी एक का भी चेहरा नहीं
देख पाता।

हत्या सिर्फ़ मैंने ही नहीं की है।
मुझे ही क्यों दण्डित करता है यह मैं।
किससे करवाऊँ बचाव खुद से अपना।
ऐसा ही होता है।

अफसोस‘-पहले दूसरों पर होता है
फिर खुद पर, फिर इस बात पर
कि यह सोचते सोचते कितना समय बीत गया।

मासूमियत छीन ली है भगवानों ने
जानवरों को देने के लिए।
हमारे लिए इच्छाएँ छोड़ दी हैं।

कुछ ऐसा करूँ जो मुझे अच्छा लगता हो,
मैं क्यों भाग रहा हूँ ?
यह मैंने खुद के लिए चुना है या दूसरे ने।

अगला कदम क्या एक सदी पार कर रहा है
या एक क्षण या ये सारी सदियाँ ही एक क्षण थीं।
कितना समय बीत गया।

यह कुरूक्षेत्र ही है क्या ?
कोई सपना लगता है, या कोई भ्रम
मैं इससे क्यों नहीं भाग पाता।
यह पाताल है या स्वर्ग।

यह भीड़ क्यों लड़ती है,
मैं क्यों नहीं लड़ता।

घास के ऊपर तैर रही ओस पीकर ज़िन्दा रहतीं
ये मृतकों की चीखें।
क्या वास्तव में मर गये सिर्फ वे लोग
या हम भी चलते मुर्दे हैं।

इस रण में ही छिपी है शान्ति
हँस रही है धूप, पसीने और रक्त
से लिप्त खड़ी रण के बीच।

कुत्तों और गिद्धों की आँखें लाल हो गयीं है
रक्तचाप से योद्धाओं की कल्पनाएँ लाल हो गयीं हैं।

इतिहास हम हैं या वेदव्यास या गणेश जो
लिखते हैं महाभारत या जीत की सम्भावना जो छिप
गयी है मनुष्यों की इच्छाओं में।
ऐसा ही होता है।

हम क्या लड़ें, क्यों लड़ें, किससे लड़ें
कुछ भी स्मरण नहीं।

हम सत्ता के लिए नहीं लड़े थे,
न ही ईर्ष्या से, न ही समृद्धि के लिए
हम लड़े क्यों ?
क्या वास्तव में लड़े थे ?
सम्भव है कि यह देवताओं की चाल हो,
लेकिन यह भूमि लाल है
कुरूक्षेत्र, हाय कुरूक्षेत्र जिसे छलनी किया
भयावह सेनाओं ने, असंख्य योद्धाओं ने
क्या यह तुम्हारे द्वारा रचा एक स्वप्न था ?

हमें क्यों कौशल इतना अधिक मिला
और इच्छाएँ इतनी कम।
रात्रि में स्वप्न नहीं मिले, सूर्यास्त
पर सन्तुष्टि नहीं मिली।

मैं थक गया हूँ, थक गया हूँ, थक गया हूँ।
कहाँ जा रहा हूँ ? आँखें सूज गयी है
नहीं सो पाता हूँ, मृत्यु भी क्षमा नहीं करती है।

यह फूल अभी उगे ही हैं, भीष्म की
तरह पता है इन्हें भी मृत्यु का समय।
धन्य हैं।

अपनी इच्छाओं से बहुत पहले पल्ला
झाड़ चुका हूँ दूसरों की इच्छाओं को ढोता हूँ
कभी अर्जुन बनकर द्रोपदी की कामना करता हूँ,
कभी धृतराष्ट्र बनकर अपने पुत्रों की,
कभी अश्वत्थामा बनकर मृत्यु की,
ऐसा ही होता है।

2.
तथास्तु
बुद्ध देखते है शेर की आँखों में
सूर्य की किरणों से लिप्त
धूल बह रही है बगीचों के कटे-फटे
पेड़ों के बीच।

अभिमन्यु देखता है उन योद्धाओं को
जिनकी मृत्यु की कल्पना उसकी
मृत्यु से उपजी है।

गाँधी देखते हैं उसे
सदियों पार से और पुकारते हैं
हे राम!

घास की कटी हुई नोक के
ऊपर से एक टिड्डे पर घात
लगाये बैठा है गिरगिट।
वह जीभ चटकारता है।

अर्जुन के तरकश में छिपा
बाण पुकारता है
जयद्रथ कहाँ हो तुम
सामने आओ !

तुम लोग मुझे घेर कर क्यों मारते हो
कर्ण, तुम शूर हो, पीछे से वार क्यों करते हो
नहीं किया है मैंने किसी पर पीछे से वार।

इन भुजाओं पर मेरे पिता का
आशीर्वाद सवार है, इन्हें तुम
कैसे मारोगे।

कर्ण, सूर्यपुत्र कर्ण, तुम क्यों पीछे
से वार करते हो।

पलट कर कहता है सीज़र,
मेरे दोस्त, ब्रूट्स तुम भी
इस चक्रव्यूह में आये हो।

समय देखता है मनुष्य को
उसकी यादों को अपनी ढाल
बनाकर जाता है उसके सामने
और माँगता है स्वर्ण कवच-कुण्डल।

बूढ़ा देखता है सड़क
और आखिरी बार सहलाता है
अपनी सोई हुई शक्ति की याद को
अपनी विपन्नता को समझाता है,
यह आखिरी बार है।

अभिमन्यु भागता है चक्र लेकर,
देखता है वह मृत्यु को
चीखता है, छल, छल किया है
तुमने मेरे साथ।

मृत्यु कहती है, कुमार, छल तुम्हारे साथ
हर सूर्योदय ने किया है जिसे तुमने
देखा है, उन रातों में छला है तुम्हे
जब तुम सोये थे, यह छण तुम्हारे पहले से
तुम्हारे साथ था,
तुम्हारे बाद इसे कल्पना और समय ढोएंगें,
तुम्हारा वध नहीं हो सकता अभिमन्यु
तुम हमेशा से मृत थे।
तुम्हारे जीवन से ज्यादा, जीवित है
यह मृत्यु !

तुम कभी नहीं मर सकते।
क्योंकि तुम अनन्तकाल से यहीं थे
और अनन्तकाल तक यहीं रहोगे।
यह चक्र उठाये, देखते मृत्यु
तथास्तु

3.
दृष्टि
क्या मैं अकेला हो गया ?
कहाँ गये सब लोग ?
उस पेड़ के पीछे से वह चिड़िया
क्या मुझे देख रही है ?
नहीं !
कोई किसी को नहीं देखता,
इन पेड़ों के ऊपर नहीं बैठे यक्ष।
इस शताब्दी की देह में
छिप गया है अन्धकार।

कुछ कुण्ठित नहीं,
हवा भी अन्धी है।

हर ईंट लाल नहीं है,
है ना ?

वह किसी कुत्ते की भौंक है,
या किसी वज्र की गर्जन ?
मैंने देखा था अपनी कल्पना में छिपा,
स्मृति को पकड़े वह बादल जो एक क्षण में गुज़र गया।
आँखों में आँसू, अन्तहीन दृष्टि,
रेगिस्तान के भीतर छिपे चीटों की
कल्पना से शापित।

संजय बोलते हैं, ‘‘महाराज न विजय हुई,
न पराजय, न धर्म हुआ न अधर्म।‘‘

ध्रतराष्ट्र देखते हैं रंग।
रात के अंधेरे में बारिश हो रही है।
भूमि लाल हो गयी है।

4.
गीता
सब खत्म हो गया।
यह मैंने क्या कर दिया ?

तुमने कहा था कि यह सब तुम ही थे
फिर क्यों रोते हैं ये अनाथ ?
ये विधवायें, तुम तो यहीं हो।

धर्म की जीत के लिए तुमने मुझसे
कैसा अनर्थ करवा दिया ?

सुनो यह बारिश के बादलों की गर्जन नहीं है।
यह प्रकृति का रूदन है।
उसे मैंने चोटिल किया है।

ये गिद्ध जो रण को ढँके हैं,
यह उन मृत योद्धाओं के स्वप्न हैं, जिन्हें
मैंने अपूर्ण अवस्था में ध्वस्त कर दिया है।

तुमने मुझसे यह क्यों करवाया
मैं शापित हूँ, इतनी जीतों का भार
उठाकर हार गया हूँ।
यह मैंने क्या कर दिया।

देखो उन कुत्तों को, वे भी रो रहे हैं।
मैंने मनुष्यों का विषाद इतना अधिक
बढ़ा दिया कि वह जानवरों में फैल गया।

यह बारिश की बूँदें अब इस धरती को
गीला नहीं करती, इसके आँसू सूख चुके हैं।

मैं ही क्यों, मुझे ही तुमने क्यों समझायी गीता,
मुझसे ही क्यों करवायीं हत्याएँ।

यशोदानन्दन बोलते हैं, ‘‘क्योंकि विध्वन्स जीवन का
आरम्भ है, मैं ही था तुममें जब तुमने इन योद्धाओं
को ध्वस्त किया लेकिन पहले ही जानते हो तुम गीता।‘‘

हाय ! अब तुम मुझे सीधे जवाब भी नहीं देते
यह पाप तुमने मुझसे क्यों करवाया
इतनी हत्याएँ कि तीनों लोक इसकी
गन्ध से लिप्त हो गये, मैं ही क्यों ?

क्योंकि तुम ही मुझपर विश्वास कर सकते थे,
तुम ही मुझपर सन्देह।

5.
प्रेम की कविता
मैं जब सब भूल जाता हूँ
तब भी कुछ बच जाता है।
हार से अधिक
वे वाक्य बच जाते हैं जो
तुमसे कभी कह नहीं पाया,
या शायद ख़ुद से नहीं कह पाया।

हर परछाई में मैं ख़ुद को
तुमसे छिपा लेता हूँ।
और छिपने से ख़ुद में छिप जाता हूँ
वहाँ जहाँ रोशनी की जगह
मेरी उम्मीद आती है लालटेन पकड़ कर

शायद प्रेम वह जगह है यहाँ
हमारी विफलताएँ आती हैं सुस्ताने,
फिर से भाग जाने, और बच जाते हैं
हम फिर एक दूसरे से स्वप्न में
मिल जाने।

6.
शायद
हर दिन हर पल ऐसा
कुछ सम्भव है जो मुझसे परे भी है।
जो मेरे अन्दर से मुझे देखता है
और पूछता है, तुम कौन हो ?

7.
जीत
हम वही करते रहे जो आपने कहा था
तलवार उठाओ
तलवार उठायी,
सिर काटो
सिर काटे,
करो बलात्कार
बलात्कार किये।
हमें बताया गया था कि शायद मर सकते हैं।
नहीं बताया किसी ने कि जी सकते हैं, हार के साथ,
अपमान के साथ,
साथ एक जीत की उम्मीद के
जो हकीकत के दरवाजे खटखटाकर थक जाएगी।
कुछ बच्चे होंगे जो कहेंगे कि इसके अलावा
कुछ नहीं था जो हमने किया था।
कुछ यादें जिनमें जीत या यश नहीं
पसीना सना है जो धुल जाएगा
और खून लिथड़ा है जो कभी नहीं धुलेगा।

कुछ बूढ़े अकेले जो बच गये
अपनी जवानी का हिसाब माँगकर
कहते हैं ‘‘हम वही करते रहे जो आपने कहा था‘‘

8.
आकांक्षा
शायद सितारे आज टूट जाएंगे
उसकी अस्त-व्यस्तता के बीच
कहीं कुछ ऐसा, मवाद ही तो
पर हो जरूर जो प्रतिभाहीन मनुष्य के साथ
भी रह जाएगा
समय के अंत तक।

कुछ ऐसा जो चमकेगा
किसी पहाड़ के ऊपर
एक अदृश्य बिजली की तरह।

हर स्वप्न हर बार एक चमक
एक बात एक स्वप्न हर बार।

एक विषम अथाह विस्तार
यह मनुष्य, यह मृत्यु, हाहाकार।

जहाँ हम जाएंगे वहीं से कभी आ रहे थे।

करूण कर्म, ध्वस्त कपाल
प्रज्वलित स्वप्न, स्मृतियाँ अपार।

कुर्सी से उठकर एक तरफ जाते हुए,
जाकर आते हुए
हमसे रात छूट गयी।

मैं यह करूँ, मैं वह करूँ
मैं क्या करूँ ?

उसे रोना ही था जिसे
हँसना ही था।

कुछ तो बचना ही था,
कुछ तो बच ही गया।

9.
यमन
हवा की चाल को पहचानकर,
पूर्व की ओर उड़ती गौरईयों का झुण्ड
एक नया क्षितिज बना रहा है।

कुछ धूल उड़ गयी है
अब थमने के लिए

पत्ते थम गये हैं,
पेड़ हिलते हैं हौले हौले

पहाड़ से निकलकर
रात आसमान को ख़ुद में समेट रही है।

काले पानी में मछलियाँ
हिल रही हैं, सोते हुए खुली आँखों से
एक समय का बयाँ करती
हिल रही हैं हौले हौले।

बुढ़ापे को छिपाती आँखें
हँसती हैं।
कौन सुनता है, कोई नहीं
कौन नहीं सुनता, कोई नहीं।

सदियों पहले
अकबर के दरबार में बैठे
सभागण उठते हैं,
तानसेन के अभिवादन में

दरी बिछी, तानपुरे मिले
सूरज थम गया

संगीत की उस एकान्तिकता प्रतीछा में
जो हमारी एकान्तिकता को हरा देती है।

सब मौन, सब शान्त, सब विचलित
तानपुरे के आगे बैठे बड़े उस्ताद
एक खाली कमरे में वीणा उठाते हैं
निषाद लगाते हैं।

सभा जम गयी है।

10.
संयोग
मेरी ख़ामोशियों का घेरा
इतना बढ़ गया है कि
अब मैं बोल सकता हूँ।

लोगों से न बात करने की
चेष्टा में कई लोगों से बात करते हुए,
शायद यह समय ऐसे ही बीतता है।

अन्ततः मैंने ख़ामोशियों की
तलाश में संयम व्यर्थ किया।

कहाँ से भागता हुआ मनुष्य
कब रूक जाता है,
किसे पता क्या हो जाता है
दो सांसों के बीच

हम फिर से मिल गये।
यह क्या हो गया,
अब मैं किसे याद करूँगा,
कौन मुझे।

एक शब्द के भीतर अर्थ की
अनुपस्थिति को खोजते हुए
कुछ कह लेने ही मजबूरी को
न मैं दगा दे पाया, न शब्द खुद।

बंजर ज़मीन के खालीपन को
ओढ़कर बारिश ही नहीं
घास भी उग रही है,

जिन्हें कभी नहीं पकड़ पाना चाहिए
उन्हें मैं पकड़ लेता हूँ।

अपनी अनुपस्थितियों के विराट
संयोग में अपनी उपस्थिति के
संयोग के किनारे मैं बैठा हूँ,
वहाँ जहाँ कोई
शायद अपनी अनुपस्थिति को छोड़ गया है।

कुर्सी पर बैठा आदमी
दूसरों के लिए कुर्सी भर रहा है,
अपने लिए नहीं।

एक नीम के अकेले पेड़ पर
चिड़िया बैठी है,
भव्यता उनमें भी है जो उड़ गये हैं
कभी न आने को।

11.
देशभक्ति
अब क्या रह गया है,
हम सब तो हार गये।

अपनी कोशिश की नाकामयाबी का
सामना करने का ज़ज्बा भी

चलो, अब समय आ गया
पिछली शताब्दी के कोने में
हम गाँधी को बैठा कर आ गये,
यह बोलकर कि
देश आजाद हो गया।

क्योंकि हमें पता था कि आजादी
कुर्बानी मांगती है
हमने एक दूसरे को मारा
उन्हीं अस्त्रों को उठाकर जिन्हें
सदियों पहले अशोक ने त्याग दिया था,
हम लड़ते गये और कुछ न कर पाये।

और हम छिप गये उस युद्ध से
जो हममें छिड़ गया था जिसे
जीतकर एक कुत्ते को
छोड़ने की शर्त पर
स्वर्ग जाने से मना कर चुका था
युधिष्ठर।

अपने बूढ़ों के स्वप्नों को नोचकर
हम परिष्कृत हो गये।
अंग्रेजी बोलते-बोलते हमने
हिन्दी में सोचा क्या हम स्वतंत्र हो गये ?

हम कुछ तो हो ही गये होंगे
ढोंगी, क्रोधी, ईष्यालु !

समय में गुँथा एक फन्दा
जिसे खोलने की फुर्सत
अब किसी के पास नहीं है

हम यह समझ नहीं पाये
कि इस शोर से नहीं छिपेगा
कि हम अकेले थे,
नहीं छिपेगा कि,
दूसरे भी अकेले थे



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