Friday, February 1, 2013

ग्लोबलाइजेशन !

खुश होता था कभी
ग्लोबलाइजेशन के नाम से
इसी के तो देखता था
सपने साहित्य में
दुनिया सब एक हो
सबमें हो भाई-चारा
करें सब विकास मिल.
लेकिन मैं ठगा गया
नाम तो वही था पर
छद्म वेश धारण कर
कोई और आ गया.
करता ही जा रहा यह
हत्याएँ गाँवों की
नष्ट कर सब संस्कृतियाँ
अपने ही पैर यह
फैलाए जा रहा
अरे, कोई मारो इसे
यह तो हत्यारा है!
नष्ट करता जा रहा
खेत-खलिहानों और
गाँवों-जवारों को.
सुनता पर कोई नहीं चीख मेरी
शामिल हैं लोग उसके साथ सब
लड़ते हैं गुरिल्ला जो
लैस वे भी दीखते हैं
उसी के हथियारों से.
महँगा सौदा
कारण तो कुछ भी नहीं
खुश है पर आज मन.
बैठता जब सोचने
आता है याद आज
घटी नहीं कोई दुर्घटना
नींद में भी आया नहीं
कोई दुस्वप्न.
जानता हूँ ऐसा तो
था नहीं हमेशा से
घोर अभावों में भी
मिलती थी नींद भरपूर कभी.
दूर अब अभाव सारे कर लिये
सुविधाएँ हासिल सब हो गईं
लेकिन जो पास था सुकून तब
दूर वही हो गया
जाना पड़ता है अब
हँसने को लाफ्टर क्लब
आती नहीं नींद गोलियों से भी
तरक्की तो हो रही है रोज-रोज
तेजी से भागता मैं जा रहा
छूटता ही जा रहा पर
सुख-चैन पीछे.
सोचता हूँ कभी-कभी
सौदा महँगा तो नहीं !


- हेमधर शर्मा

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