Thursday, February 21, 2013

******मौन******


तुम्हारा मौन
कितना कोलाहल भरा था
लगा था
कहीं बादलों की गर्जन के साथ
बिलजी न तडक उठे
तुम्हारे मौन का गर्जन
शायद समुद्र के रौरव से भी
अधिक भयंकर रहा होगा
और उस में निरंतर
उठी होंगी उत्ताल तरंगें ,
तुम्हारे मौन में उठते ही रहे होंगे
भयंकर भूकम्प
जिन से हिल गया होगा
पृथ्वी से भी बड़ा तुम्हारा हृदय
इसी लिए मैं कहता हूँ कि
तुम अपना मौन तोड़ दो
और बह जाने दो
अपने प्रेम की अजस्र धारा
भागीरथी सी पवित्र व शीतल
दुग्ध सी धवल
ज्योत्स्ना सी स्निग्ध व सुंदर
और अमृत सी अनुपम॥

डा. वेद व्यतिथ

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