Friday, February 1, 2013

अक्स विहीन आईना !

आज उतार लायी हूँ
अपनी भावनाओं की पोटली
मन की दुछत्ती से
बहुत दिन हुये
जिन्हें बेकार समझ
पोटली बना कर
डाल दिया था
किसी कोने में ,
आज थोड़ी फुर्सत थी
तो खंगाल रही थी ,
कुछ संवेदनाओं का
कूड़ा - कचरा ,
एक तरफ पड़ा था
मोह - माया का जाल ,
इन्हीं  सबमें  खुद को ,
हलकान करती हुई
ज़िंदगी को दुरूह
बनाती जा रही हूँ ।
आज मैंने झाड दिया है
इन सबको
और बटोर कर
फेंक आई हूँ बाहर ,
मेरे  मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब  इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

- संगीता स्वरुप

(ब्लाग ‘गीत मेरी अनुभूतियाँ’ से साभार)

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