Friday, June 19, 2015

मिलें तो मैल न रहे मन में !

मिलें तो मैल न रहे मन में
जैसे यात्रा के बाद
अप्रासंगिक हो जाते है रेल और हवाई जहाज के टिकट
कई बार अप्रासंगिक हो जाते है लोग
अलग हो जाना चाहिए

मगर इस तरह,
मिलें तो
मैल न रहे मन में

एक के लिखे पर दूसरे नाम का
चिपकना देखा है मैने , सिरियल सिनेमा के घाघो की
डकार सुनी है मैने,जाने कितने कितने घाघो की डकार
मेरा रचनाकार अपमानित हुआ है
दिल्ली के एक अखबार से
अपने लिखे का मांगना पडा था नाम

ये है जिनकी रचना का समय
जिन्होने समय को यहां तक पहुंचाया है
अप्रासंगिक हो चुके है मेरे लिए

समाज के सबसे निचले पायदान पर खडे
आदमी के लिए,साहित्य को
समाज की मुख्य धारा बनाने का स्वप्न देख रहा हू

जिनके पास यह स्वप्न न होगा
उनसे कडियां टूटेंगी. संबन्ध विखरेंगे
विदा, निवेदन बस इतना
मिलें तो मैल न रहे मन में !


- निलय उपाध्याय

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