Saturday, June 20, 2015

गमछा !

वह पता नहीं कितने समय से टंगा रहा था
बाबा के कंधे पर
बाद फिर पिता के कंधे पर
पिता को उसकी पगड़ी पहनाई गई थी
बाबा की तेरही के दिन
पिता खूब रोते रहे रोती रही घर की सभी औरतें
मैं उस समय चुप
सोच रहा था कि मुझे भी रोना चाहिए या नहीं
देखता सबकुछ
निर्दोष - विचलित
पगड़ी दी गई थी पिता को
अब वे खानदान के मालिक थे
उनके सिर से उठकर गमछा
अब आ गया था कंधे पर एक जिम्मेवारी की तरह
उनके न रहने पर जिसे सौंपा जाना था
घर के किसी और योग्य व्यक्ति को
कि सबसे बड़े बेटे को
घर का सबसे बड़ा बेटा मैं
बहुत दिन हुए छोड़ आया हूं गांव का वह घर
पिता के गमछे की छाया
उनके मालिकत्व और स्नेह की परछाई से
दूर चला आया हूं इस शहर में
लेकिन मैं जानता हूं एक दिन जब नहीं रहेंगे पिता
गमछे की पगड़ी पहनाई जाएगी मुझे भी
पिता को याद कर रोऊंगा मैं भी जार-जार
सोचकर यह कि उनके अंतिम समय में
नहीं रह पाया मैं उनके पास
कोई सेवा टहल नहीं कर पाया पिता का
गमछा मेरे कंधे पर भी आकर बैठ जाएगा
उम्र भर के लिए जैसे पिता की आत्मा
हर रात मैं दौड़कर जाऊंगा अपने गांव अपने खेत
पेड़ों के बीच जिनकी रक्षा की जिम्मेवारी मेरी
और हांफते हुए पसीने-पसीने उठ बैठूंगा
नरम बिस्तर पर भी घबराया - और लहूलुहान
और एक दिन मैं छोड़कर चला जाऊंगा वह गमछा
घर की रेंगनी पर सूखता – लहराता
इस संबंधहीन समय में
इस विश्वास के बिना ही
कि उसे कोई योग्य घर का
कि कोई बड़ा बेटा
धारण करेगा एक और पगड़ी के रूप में
मेरे जेहन में हांफते हुए गांव-घर को बचाएगा
गमछा वह लटका रहेगा सदियों वहीं
उसी घर की रेंगनी पर
जैसे पृथ्वी और आकाश के बीच
एक कंधे की प्रतीक्षा में...।।

( तस्वीर - पिता की - छोटे भाई के कैमरे से)
- विमलेश तिवारी 

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