Saturday, May 9, 2015

रक्त में ख़ुशी !

मैंने पूछा
थोड़े संकोच थोड़े स्नेह से

कैसे हैं पति
हैं तुम्हारे अनुकूल

उसने कहा
मुदित मन से लजाते हुए

जी बहुत सहयोगी हैं
समझते हैं मेरी सीमा
अपनी भी

उस दिन मेरा मन बतियाता रहा हवाओं से फूलों से
पूछता रहा हालचाल राह के पत्थरों से
प्रसन्नता छलकती रही रोम-रोम से
यूँ ही टहलते हुए चबा गया नीम की पत्तियाँ
पर ख़ुशी इस क़दर थी रक्त में कि कम न हुई मन की मिठास

मैंने ख़ुद से कहा
चलो ख़ुश तो है एक बेटी किसी की
और भी होंगी धीरे-धीरे 


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- जितेन्द्र श्रीवास्तव
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