Monday, June 15, 2020

रावल जोगी

मैं गीतों का रावल जोगी चला किया अविराम।
 दिनभर अलख जगाई मैंने 
रात वृक्ष के नीचे काटी 
जुड़ी रही अनवरत राह से 
मेरी गैरिक वसना माटी
 इस बस्ती में भोर हुई तो उस बस्ती में शाम।
  मुझे कपटवेशी बतला कर 
 कहा किसी ने यह ढोंगी है 
कहा किसी ने बाहर जोगी 
लेकिन भीतर रसभोगी है 
जिसने  ठुकराया उसको भी मैंने किया प्रणाम। 
 मेरी क्या औकात, जिन्होंने 
जीवन में कितने दुख झेले
 संत्रासों से खपा  स्वयं को 
कितनी विपदाओं से खेले
 यह तुलसी की माटी जाने या तुलसी के राम।
 मेरे सिरजनहार समझ में 
आई नहीं तुम्हारी माया
 अंगारों के जंगल में दी
 तुमने पांच फूल की काया 
जिसकी हर कामना अधूरी हर  आंसू नाकाम। 
 बिजली जिसको आंख दिखाए 
जिसे बादलों ने भरमाया
 चक्रवात के पथ पर तुमने 
यह माटी का दीप जलाया 
चुटकी भर उजियारी लिख दी अगम तिमिर के नाम। 
 मेरा घट  खाली रखना था 
तो मुझको यह प्यास  न देते 
पंख नहीं देना था तो फिर 
मुझको तुम आकाश न देते 
इतनी पीर न  देनी थी जो कर दे नींद हराम। 
 आश्वासन देकर फूलों का 
 मुझको कांटे दिये  समय ने 
मेरे गीतों की झोली में 
कुछ आंसू कुछ टूटे सपने 
छोटी -सी पूंजी है वह भी गली -गली गली बदनाम।
 अंधकार के अभिनंदन में 
उजियाली ने  कविता बाँची 
यह  दरबार झूठ का जिसमें 
सारी रात सचाई   नाची
प्यासा मरा पपीहा  कोई  घटा न आई  काम। 
 अनबन के कांटे चुभते हैं 
नफरत के अंगारे फैले 
घूमा करते हैं सड़कों पर
भेष बदलकर नाग विषैले 
अंकुश नहीं हवा पर अफवाहों पर नहीं लगाम।

 @रूप नारायण त्रिपाठी

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