Sunday, September 18, 2011

आजकल !

जब कई हाथ
उठते हैं साथ साथ
और कुछ उंचे स्वर में
हो रही हो बात
तब सत्ता चौंक कर
ढुंढती है
कहां बिछी है बिसात
उसे तो दिखती है सिर्फ शह और मात
सत्ता के अन्य संवेदना तंतु
तो दफ़न हैं बर्फ के नीचे
सत्तधारियों को सिर्फ
उठती हुयी हथेलियों की
उष्मा से बचा रखना है
उस संवेदना तंतु के उपर जमीं बर्फ को
यह बर्फ अगर पिघल गयी तो
सत्ता की सुरक्षा खतरे में होगी
बचा कर रखें उस बर्फ को
संवेदना तंतुओं को जिन्दा होने से रोके
तब ही यह सत्ता की कागज की नाव
अगले चुनाव तक
तैरती रह पायेगी
जब चुनाव जीतना
साधन न हो साध्य हो जाता है
तब चाहे कोई जीते
राष्ट्र हर हाल में
हारता आता है।
जब चारण चाणक्य का पद पाता है
तब नीति शास्त्र के नाम
प्रशस्ति गीत गाया जाता है
जब इन्दिरा इन्डिया का पर्याय कहाती हैं
तब भूखे अधनंगे भारत की थाली में
आंकड़ों की रोटी परोसी जाती है।
जन साधारण की जिजिविषा
में उन्हे दिखता है राजद्रोह
इस दृष्टिभ्रम की
वजह है सत्तधारियों की
पैसे की भूख
और सत्ता का मोह
जब नागरिकों के विरोध के स्वर को
को कानुन व सुरक्षा
के डण्डे से शान्त किया जाता है
तब जलियां वाला बाग याद आता है।
लेकिन सत्तधारी नहीं मानते
जिये हुये ऐतिहासिक सत्य को
कि निरीह जनता जब
राष्ट्र या राष्ट्रीयता से विमुख हो जाती है
तब ही विदेशी शक्तियां दांत गड़ाती हैं
कोई सैन्य दल तब काम नहीं आता है
और देश पर बाह्य शक्तियों का कब्जा हो जाता है।



No comments:

Post a Comment