Tuesday, August 22, 2017

यकीन करो (एक अराजनीतिक कविता)

मैं नहीं रहूँगा तो तुम्हारी दुनिया
कितनी सूनी और बेरौनक हो जाएगी ।
इसकी सारी चहल पहल
इसका सारा जगर मगर मेरे होने से है ।

एक मेरे उदास होने से
दूर का चाँद उदास होता है
एक मेरे खोने से
तुम्हारा सूरज भी आस खोता है ।

एक दिन सब यकीन करेंगे
कि कोई बागड़ बिल्ला नहीं
कोई अवतार और उसका लल्ला नहीं
थे संसार के संचालक ।

यकीन करेंगे एक दिन सब
कि किसी शेष के फन नहीं
किसी महेश के त्रिशूल नहीं
मेरे माथे पर टिकी थी तुम्हारी वसुंधरा
मेरी हंसी खुशी से
यह जग था हरा भरा ।

जब मैं न रहूँगा
देखना
दुनिया एकदम निस्तेज और बेजान हो जाएगी
हवा मुझे न पाकर
आकाश के शून्य में खो जाएगी
यकीन करो ।

कभी सोचा है
तुम्हारे ताले की चाभी कौन बनाएगा
तुम्हारे दरवाजे का कुंडा कौन लगाएगा
तुम्हारे दरो दीवार को कौन सजाएगा
तुम्हारे शिथिल मन को कौन
रंगारंग कर जाएगा
तुम्हारे माथे की खिसकी बिंदी को
कौन बीचों बीच लगाएगा
तुम्हारे सलमा सितारे कौन खिलाएगा
तुम्हारे पीताम्बर में जरी गोटे कौन लगाएगा
तुम्हारे नाम का जैकारा कौन लगाएगा ।

यकीन करो माँ भारती
तुम बहुत सुशोभित होती हो मुझे निहारती
बहुत प्रिय लगती हो मुझे पुकारती
मुझे पुचकारती दुलारती
बहुत भली लगती हो
यकीन करो ।

बोधिसत्व, मुंबई

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