Tuesday, November 16, 2010

और नहीं तो थोड़ा सा मुस्कुराया कर !

रोज-रोज यूँ बुतख़ाने न जाया कर,
कभी-कभी तो मेरे घर भी आया कर।

तू ही एक नहीं है दुनिया में आलिम,
अपने फ़न पर न इतना इतराया कर।

औरों के चिथड़े दामन पर नज़रें क्यूं,
पहले अपनी मैली चादर धोया कर।

लोग देखकर मुंह फेरेंगे झिड़केंगे,
सरेआम ग़म का बोझा न ढोया कर।

वक़्त लौट कर चला गया दरवाजे से,
ऐसी बेख़बरी से अब न सोया कर।

मैंने तुमसे कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं,
और नहीं तो थोड़ा सा मुसकाया कर।

नीचे भी तो झांक जरा ऐ ऊपर वाले,
अपनी करनी पर तो कुछ पछताया कर।

रात-रात भर तारे गिनते रहते हो,
चैन मिलेगा मेरी ग़ज़लें गाया कर।

:- महेंद्र वर्मा

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