Tuesday, November 16, 2010

टाँड़ पर चरखा !

कुछ चीज़ें जब अपना दाना-पानी समेट कर
घूमना बंद कर देती हैं
तो हमसे निश्चित दूरी बना लेती हैं

उनसे तभी तक स्नेह बना रहता है जब तक वे हमारे हाथ में रहती हैं
हाथों से छूटते ही सीधे गर्त में चली जाती हैं

फिर उनसे सिर्फ यादों को माँझने का काम ही लिया जा सकता है

इस ख्याल को और पुख्ता बनाया
अँधेरे-ओबरे में रखे उस चरखे ने जो
आँखों से दस उँगल की ऊँचाई पर
ढेर सारे लकड़ी के पायों, जेली और घर की दूसरी गैरजरूरी चीज़ों के साथ ही
समेट कर वहाँ रख दिया गया था जहाँ
किसी का हाथ आसानी से ना पहुँच सके

नयी चीजों से दोस्ती कर
हम पुरानी चीजों को धूल के हवाले कर देते हैं
तो वे कई कोण बना कर हमारी आत्मा मै घर कर लेती है

वैसे भी ज्यादा दिनों तक जो चीज़ें हमारे जहन में अटकी रह जाती हैं
वो धीरे-धीरे वो ना बुझने वाली प्यास में तबदील हो ही जाती हैं

तो चरखे की आँख में ठहरा हुआ पानी, जाले और ढेर सारी मकड़ियाँ थी
मगर अब भी वह बहुत कुछ याद दिला सकता था
उसने दिलाया भी

गावँ के घर का लम्बा-चौड़ा आँगन, कई बीघा खेत, झाड़ियाँ, बटोड़े
चक्की, बिलोना, आधा चाँद की लुका-झिपी
मँगलू कुम्हार के हाथों बनी बाजरे की खिचड़ी, जिससे बचपन का सबसे घना हिस्सा आबाद हुआ करता था
सूरज के देर से छिपने और जल्दी ढल जाने वाले और
कभी उदास न होने वाले दिन
हँसी-ठठे के वे रंग जो अब तक नहीं छूट पाए है
जीवन के पक्केपन से हमारी यारी-दोस्ती नहीं हुयी थी तब
ना ही हमारी नाक इतनी लंबी हुई थी जो गोबर की महक से टेड़ी हो जाये

दूध दोहते वक़्त गाय और बछड़े के रिश्ते का नन्हा अकुंर कहीं भीतर पनप जाया करता था
उसी आकर्षण मै बंधे हम देर तक बछड़े को उसकी
माँ का दूध पीने देते
और इसपर घर वालों की डाँट खाते, यह हररोज का क्रम था

पंचायत की ज़मीन पर लगे बेरी और नीम के पेड़ों पर
उछल-कूद दोहरा-तिहरा मज़ा दिया करती थी

आज की तरह चरखा हमें
चौंकाता नहीं था
मन हरा कर देता था

उस हरेपन की हरितिमा के घेरे में चक्की पर गेहूँ पिसती माँ
और भी नज़दीक आ जाती थी
बिलौने से मक्खन ले हम खेतों की ओर निकल पड़ते थे
शाम को पाईथागोरस की थ्योरम और E=MC2 का फ़ॉर्मूला याद करते करते हम
अपने रिश्तेदारों की कूटनीतियाँ स्वाहा कर देते थे

रासायनिक क्रियाएं हमारें भीतर उत्पात मचाती रहती थी
और हम समझ नहीं पाते थे
कि हमारी गलती क्या है

चरखे के साथ ही माँ के वे दिन भी याद आये
जब वह अपने दुख को इतनी मुश्तैदी से सूत में लपेट दिया करती थी
कि हम लाख कोशिशों के बाद भी उसके चेहरे पर आँसू का एक भी कतरा नहीं ढूँढ़ पाते थे
अब तो वह दुख तो इतना आगे निकल गया है कि उसे पहचाना पाना मुमकिन नहीं

मुमकिन है तो बस जीवन और बीते वक्त की जुगलबंदी की वे यादें
चाह कर भी बचपन और आज की उम्र का फासला गुल्ली डंडे से पूरा नहीं किया जा सकता

ना ही चरखे को वही पुराना रिश्ता जुड़ सकता है
चेतना के हज़ारो धागे चरखे से जुड़े होने के बावजूद
उसे नीचे उतारने के ख्याल से ही कँपकपी चढ़ने लगती है

कहाँ रखेगे इसे
पाचँवे माले के सौ गज के फ्लैट में
नहीं संभव ही नहीं

फिर से चरखा यहीं छूट जाता है
फिर से कोई हमसा ही अभागा
इस चरखे के ज़रिये यादों की धूल झाड़ेगा
पर संदेह इसमे है कि क्या यादों की यह धार
जब भी आज सी ही तेज़ रह पाएँगी।

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