Tuesday, November 16, 2010

जींस की यंत्रणा !

झेल सकता है
मनोविज्ञान
तुम्हारा चेहरा आबनूसी काला हो सकता है
या झील में तेल की बूँद के चाँद सा
दाग,
अंधापन,
मूक होना
या दुनिया के लिए बहरापन
तुम इन सब में सीख लेते हो जीना !
पर इधर बहुत कुछ आनुवांशिक नहीं
किन्तु डर लगता है
क्योंकि इसे हम ठेल-ठेल कर
भरते हैं
अपनी दिमागी आनुवांशिकता पर
एक दुरूह हैलिक संरचना
जिसमें रीतियों की कोशिकाएं
पनपती हैं -
और जन्म से पहले ही
नाम पाते हो धर्म का
संस्कार का -
जिसमें तुम्हारे ईश्वर की दी कोशिकाएं
धमनियां
नसें
मांस- मज्जा
रूपित-विरूपित होती हैं...,
इंसान से अलग
तुम्हारे नाम अलग होने को चिन्हित करती ..
बस इसी में -
धड़कना सीखता है दिल ...
दिमाग की मशीन
और शरीर के सारे कल-पुर्जे
इश्तहार की तरह
प्रचारित करते हैं
अपनी अस्मिता ...l
गुफाओं में चित्र अंकित करते
न जाने कब
तुमने अलगाव में रहना सीखा?
कब तुम्हारे समूह
स्पर्धाओं की सीमा बुनते गए?
कब इतिहास की सीवन उधेड़कर
तुमने जताना सीखा
कि तुम श्रेष्ठ हो?
कभी तुमने नग्न सौन्दर्य को जिया है...?
तहखानों के बाहर की जिन्दगी...
बहुत दिनों से
बंद हो..!
चिपकी हुई सीलन
सड़ांध
पिस्सू
मकड़ियां...
इन सबके बाहर...
जलता सूरज
हवाओं के जलतरंग
पानी के धरातल के
चिकने-समतल दर्पण हैं ..
झांककर देखो
तुम इंसान हो न !
वंशानुगत
या आनुवांशिक ?

- अपर्णा भटनागर

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