Tuesday, November 16, 2010

ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते !

ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते,
रस्ते हमेशा तो नहीं आसाँ रहते।

मरने पर तो ज़मीं नसीब नहीं
जीते-जी कहो फिर कहाँ रहते।

शौक फर्मा रहे वो आग से खेलने का,
आबाद कब तक ये आशियाँ रहते।


अपना बना कर ग़र न लूटते हमें,
जाने कब तक मेरे राजदाँ रहते।

काबू में रहती मन की बेईमानी अगर,
गर्दिशों में भी हम शादमाँ रहते ।

सीखा न था मर-मर के जीना कभी,
आँधियों के हम दरमियाँ रहते ।

लाख सामाँ करो ’अनिल’ की बर्बादी का,
हम तो खुश रहते, जहाँ रहते ।

- डॉ अनिल चड्डा

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