Thursday, January 24, 2013

मन की दीवार !

वाल का भी बड़ा अह्म अब
पहले तो एक ही वाल थी
चीन की दीवार ..."चाइना वाल "
अब हर एक को हांसिल है
क्या फुद्दू , क्या शोरबा ....

भांति -भातिं की वाल
कुछ शीशे की ,कुछ पत्थर की
कुछ नीची भी कुछ आसमान से ऊँचीं भी
किसी वाल पर ताले अलीगढ़ के जड़े
कोई वाल बस मुक्त जेल सी
एक वाल पर तो लिखा भी था ...
"यहाँ पेशाब करना मना है "
एक पर लिखा कि "इश्तिहार चिपकाना मना है "
एक पर ये भी लिखा था .....
देखो ...."यहाँ गधा मूत रहा है ..."

एक वाल बहुत छोटी सी दिखी ..
अपनी सी ,मैं कूद गया उसपर
बचपन में दीवारें कहाँ रोक पायीं मेरी उमंग
छतों से दूसरी ...फिर तीसरी फिर चौथी भी
अगर गिनू तो पांचवीं और छठवी भी
न जाने कितनी दीवारें फलांगी मैंने

जीने की चाह लिए उतरा भी
न जाने कितने जीनें ..

बहुत बार ऐसा हुआ कि सवाल ये हुआ "अरे तुम ?"
तब शिकायत नहीं होती थी मनों में
वहीँ खाया ,फैलाया और जी भी लिया
अब ऐसी वालें नहीं होती हैं ..

ये अम्बुजा सीमेंट की है वाल
लगाओ कितना भी जोर
नहीं टूटने वाली ..
अब दीवालें मनों में जो खड़ी होती हैं ....
- राघुवेन्द्र अवस्थी 

1 comment:

  1. thoughtful poem. you are not only a good writer but also a very good thinker and observer..
    superb write up.

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