Friday, August 17, 2012

"फिर भी कहूंगा मैं"

"फिर भी कहूंगा मैं"

यह जो घना कुहरा है
इसमें तुम खो बैठे हो आंख।

तुम उदास सूर्य की छाया हो
जो अपने खेतों के ग़म में
भटकता है
एक देश से दूसरे समुन्दर तक।

मेरा विश्वास नहीं करोगे तुम
फिर भी मैं कहूंगा कि
यह देश जो जर्जर हो रहा है लगातार
इसे उजड़ने से और यातना शिविर होने से बचाओ
इसे अपने घर में बसाओ तुम।

मेरा विश्वास नहीं करोगे तुम
क्यों कि विश्वास करना ठीक नहीं रह गया है
फिर भी मैं कहूंगा
कविता बहुत थक गयी है
इसे अपने अन्तस्थल की भीड़ में
जगह दो
अपनी आंखों की तरह इसकी हिफ़ाजत करो।

-पंकज दीक्षित

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