Friday, August 17, 2012

और मेरी कविता आँसू बन बरस गयी !

तुम्हारी आँखों के स्वच्छ नीले विस्तार में
एक कविता लिखी थी मैंने
कविता में पक्षियों की चहक थी
सुबह के टटकेपन के साथ
तो चौराहों पर उसी वक्त बिकने को खड़े
मजदूरों की बेचैनी भी
जंगलों की हरियाली थी
तो कटते पेड़ों का रूदन भी
फूलों की ताजगी और खुशबू थी
तो बाल-श्रमिकों के मुरझाएं चेहरे भी
समुद्र की उद्दाम लहरे थीं
तो छोटी-बड़ी कई धाराएं भी
जिन्हें एक बड़ी धारा में बदलना था
पर जाने कैसे तुम्हारी आँखों में
घिर आए स्वार्थ के काले बादल
और मेरी कविता आँसू बन बरस गयी।


- डॉक्टर रंजना जयसवाल

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