Saturday, July 10, 2021

।। रूह का दाग़ ।।

 मन की प्रवृति है चंचल
           सुख चाहता वो हर पल
सुख भी सभी हैं सम्भव
              पर  तुष्टि  है असम्भव,

  चाहत  कभी न मिटती
             सुरसा की गति ही  बढ़ती
  संतोष क्या ? न जाना
             दिल, मन कि  बात माना,

  मन, से दिमाग़  मिल कर 
                 दिल के  क़रीब  आता
  फ़िर  रूह  को  धुँधलाकर  
                    दाग़ी  उसे  बनाता,

  यह " मै " का कारनामा  
              नादाने - दिल  न  जाना
  जीवन  बिखर  के  उलझा 
                 जग से पड़ेगा  जाना,

  तब  मन  कहां रहेगा  
            जब  तन भी  छूट  जाना
  रह   जाएगा  पछताना 
              खाली  ही  हाथ  जाना,

  यह रूह भी  कोसेगी  
           किस तन का  साथ पाया
  उलझा  रहा " मै " मद  में
                  दाग़ी  मुझे  बनाया,

  जीवन  का  मर्म  जाना 
               झूंठा  है !  ये  ज़माना
  पर  देर  बहुत कर दी 
               तब  बात  मैने  माना,

  महफ़िल भी उठी कब की
            वह  मिट चुका  तराना
  लकड़ी  सजी  चिता  की
        अब ख़ाक में मिल जाना 

साभार : रमेश चन्द्र शुक्ल 

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