Friday, October 31, 2014

गजल !

मेरे हाथों की लकीरों में लिखा कुछ और है,
मेरे दिल की धकड़नों का मश्वरा कुछ और है.

जो भी चाहे कीजिए कोई शिकायत ही नहीं,
पत्थरों के बीच जीने का मज़ा कुछ और है.

मैं ने देखा ही नहीं मुड़कर ज़माने की तरफ़,
मेरी मंज़िल और उसका रास्ता कुछ और है.

कोशिशों को कामयाबी भी मिले तो किस तरह,
कोशिशें कुछ हो रही हैं, मुद्दआ कुछ और है.

वो समझता है कि हम तो कुछ समझते ही नहीं,
बोलता कुछ और है वो चाहता कुछ और है.

मेरे भीतर आँधियों का शोर थमता ही नहीं,
और बाहर देखता हूँ तो फ़ज़ा कुछ और है !!

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