Friday, October 31, 2014

|| युवा कवियों की पत्नियाँ ||

दुनिया को तरतीबवार बनाने के संकल्प के साथ
सभा में पिछली सीटों पर यह जो हुजूम बैठा है बेतरतीब-सा
वे इस दौर के चर्चित युवा कवि हैं
दुनिया-जहान की चिन्ताओं से भरे
मगर ठहाका लगाते एक निश्चिन्त-सा
घर से बाहर कई दिनों से लेकिन घर जैसे आराम के साथ
युवा कवि एक नई दुनिया की इबारत गढ़ रहे हैं.

वे सुन पा रहे हैं मीलों दूर से आती कोई दबी हुई सिसकी
उनकी तर्जनी की ज़द में है विवश आँखों से टपका हर एक आँसू
उनकी हथेलियों में थमा है मनुष्यता का निराश और झुर्राया हुआ चेहरा
उनके झोले में हैं बारीक संवेदनों और ताज़ा भाषा-शिल्प से बुने
कुछ अद्भुत काव्य-संग्रह
जो समर्पित हैं किसी कवि मित्र, आलोचक या संपादक को.

इस समूचे कार्य-व्यापार में
ओझल हैं तो केवल
उन युवा कवियों की पत्नियों के थके मगर दीप्त चेहरे
जिन्होंने थाम रखी है इन युवा कवियों की गृहस्थी की नाज़ुक डोर

युवा कवियों की पत्नियों की कनिष्ठिकाएँ
फँसी हुई हैं उन छेदों में गृहस्थी के
जहाँ से रिस सकती है
जीवन की समूची तरलता

युवा कवि-पत्नियों के दोनों बाजू
झुके जा रहे हैं बोझ से
एक में थामे हैं वे बच्चों का बस्ता और टिफिन
दूसरे में चक्की पर पिस रहे आटे की पर्ची और बिजली का बिल
एक हाथ में है सास-ससुर की दवाओं
और दूसरे में सब्जी का थैला

उनकी एक आँख से झर रहा है अनवरत मायके से आया कोई पत्र
और दूसरी में चमक रही है बिटिया की उम्र के साथ बढ़ रही आशंकाएं
उनके एक कान को प्रतीक्षा है घर से बाहर गये युवा कवि के कुशलक्षेम फोन की
दूसरा कान तक रहा है स्कूल से लौटने वाली पदचाप की तरफ

युवा कवियों की पत्नियों को नहीं मालूम
कि दुनिया के किस कोने में छिड़ा हुआ है युद्ध
या गैरबराबरी की साजिशें रची जा रही हैं कहाँ
कि इस समूची रचनाधर्मिता को असल ख़तरा है किससे
या कि कैसा होगा इस सदी का चेहरा नये संदर्भों में
वे तो इससे भी बेख़बर कि उनके इस अज्ञान की
उड़ाई जा रही है खिल्ली इस समय युवा कवियों द्वारा शराब पीते हुए

मानवता की कराह से नावाकिफ़
उनकी अंगुलियां फंसी हुई हैं
रथ के पहियों की टूटी हुई धुरी में.

--निरंजन श्रोत्रिय
प्रस्तुति : अनिल करमेले
(साभार दस्तक से)

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