Monday, August 9, 2021

गजल !

कसम  खाई  यहाँ  मैनें  सभी  को है जगाने  की।
सुनहरे  ख्व़ाब  आँखों में  पिरोने की  सज़ाने की।

हमें   रस्मों  रिवाजों  के  न  बाँधों  बंधनों से  तुम,
हमें है   आरज़ू   तारे   फ़लक  से  तोड़ लाने की।

दिखे  हर श़ख्क अपने  आप में खोया हुआ बैठा,
 नहीं  फ़ुरसत ज़रा भी है  इन्हें रिश्ते  निभाने की।

यहाँ माता- पिता  गुरु से  हमें  पहचान मिलती है,
उन्हें मत कोशिशें करना कभी भी आज़माने  की।

खुलेंगे   द्वार   जन्नत के  यहीं  दहलीज़  के भीतर,
ज़रूरत है  हमें   घर के   बुज़ुर्गों   को  हँसाने की।

नही  सोंचा   कभी  मैंनें   करूँ  मैं राज दुनिया पर,
मगर  है  जुस्तजू   मेरी   दिलों   में  घर बनाने की।

ग़मों  से   ये  "नवल"  मेरा  पुराना   है  बड़ा नाता,
वजह काफ़ी  नहीं   है क्या   हमारे  मुस्कराने  की।



                

 

 

 

 

 

 

 

 

 निशा सिंह  "नवल" लखनऊ

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