एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही खयालों में
मान कर अपने !
सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आंख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतजार
सपनों वाली रात का
इस लिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया जोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !
अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आंख
और
सपनों की उधेड़बुन से !
— ओम पुरोहित "कागद"
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही खयालों में
मान कर अपने !
सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आंख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतजार
सपनों वाली रात का
इस लिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया जोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !
अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आंख
और
सपनों की उधेड़बुन से !
— ओम पुरोहित "कागद"
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