चार साल का है मेरा चश्मा
अकसर भूल जाता हूं जिसे
कपटी प्रेमी के
सुनहरे वादे की तरह
रखने लगा उसे
ऑफिस की दराज में
पवित्र प्रेमिका के
अंतिम प्रेम पत्र
की तरह संभालकर
निंदिया रानी रूठ
बैरन बन चली गई बरेली
उसे चाहिए पढ़ने का यंत्र
घर लाने लगा चश्मा
रोज रात साथ
पढ़ने के बाद रखता बैग में
निंदिया रानी
बहा ले जाती अपने देश
मैं देखता सपने रंगीन
बिना चश्मा पहने।
- जीतेन्द्र चौहान
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