वैसे तो होली जा चुकी है..लेकिन रंग अभी भी चढ़े हुए हैं...
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
रंग हैं चोखे पास
पास नही हमजोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
देवर ने लगाया गुलाल,
मै बन गई भोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
ननद ने मारी पिचकारी,
भीगी मेरी चोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
जेठानी ने पिलाई भाँग,
कभी हंसी कभी रो दी रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
सास नही थी कुछ कम,
की उसने खूब ठिठोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
देवरानी ने की जो चुहल
अंगिया मेरी खोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
बेसुध हो मै भंग में
नन्दोई को पी बोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
- कवि कुलवंत सिंह
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