रातें होतीं कोसोवो सी
दिन लगते हैं
वियतनाम से।
डर लगता है
अब प्रणाम से।
हवा बह रही
चिन्गारी सी।
दैत्य सरीखे हंसते टापू,
सड़कों पर
जुलूस निकले हैं
चौराहों पर खुलते चाकू,
धमकी भरे पत्र
आते हैं कुछ नामों से
कुछ अनाम से।
फूल सरीखे बच्चे
अपनी कॉलोनी में
अब डरते हैं
गुर्दा, धमनी, जिगर आंख का
अपराधी सौदा करते हैं,
चश्मदीद की
आंखों में भय
इन्हें कहां है डर निजाम से।
महिलाओं की
कहां सुरक्षा
घर में हों या दफ्तर में,
बम जब चाहे फट जाते हैं
कोर्ट कचहरी अप्पू घर में
हर घटना पर
गिर जाता है तंत्र
सुरक्षा का धड़ाम से।
पंडित बैठे
सगुन बांचते
क्या बाजार हाट क्या मेले?
बंजर खेत
डोलते करइत
आम आदमी निपट अकेले,
आजादी है मगर
व्यवस्था की निगाह में
हम गुलाम से।
जयकृष्ण राय तुषार
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