तुम्हारे अंदर जो अँधेरा है
और जो जंगल है घना, भीगा सा
उबड खाबड से बीहड़ हैं जो दु:स्वप्नों के
उसमें मैं एक हिरन की तरह भटकता हूँ
कोई गंध मुझे ढूंढती है
किसी प्यास को मैं खोजता रहता हूँ
यहाँ कुछ मेरा ही कभी मुझसे अलग होकर भटक गया था
मैं अपनी ही तलाश में तुम्हारे पास आया हूँ
कब हम एक दूसरे से इतने अलग हुए
की तुम स्त्री बन गई और मैं पुरुष
क्या उस सेब में ऐसा कुछ था जो तुमने मुझे पहली बार दिया था
उस सेब के एक सिरे पर तुम थीं
मुझे अनुरक्त नेत्रो से निहारती हुई और दूसरी तरफ मैं था आश्वस्त...
कि उस तरफ तुम तो हो ही
तब से कितनी सदियाँ गुज़री
कि अब तो मेरी भाषा भी तुम्हें नहीं पहचानती
और तुम्हारे शब्द मेरे ऊपर आरोप की तरह गिरते हैं
तुमने भी आखिरकार मुझे छोड़ ही दिया है अकेला
अपने से अलग
हालाकि तुम्हारी ही अस्थि मज्जा से बना हूँ
तुमसे ही बनकर तुम्हारे बिना कब खड़ा हो गया पता ही नहीं चला
तुम्हारे खिलाफ खड़ा हुआ
यह मेरा डर था या शायद मेरी असहायता
कि मेरा प्रतिरूप तुम तैयार कर देती थी
जैसे कोई जादूगरनी हो
देवि.... दुर्गा.... असीम शक्तियों वाली
सुनो !. तुम्हारे कमजोर क्षणों को मैंने धीरे धीरे एकत्र किया
जब मासिक धर्म से भींगी तुम नवागत की तैयारी करती
मैं वन में शिकार करते हुए तुम्हें अनुगामी बनाने के कौशल सीखता
जब तुम मनुष्य पैदा कर रही थी मेरे अंदर का पुरुष तुम्हें स्त्री बना रहा था
और आज मेरे अंदर का स्त्रीत्व संकट में है
मैं भटक रहा है जंगल-जंगल अपनी उस आधी स्त्री के लिए जो कभी उसके अंदर ही थी।
अरुण देव
युवा कवि और आलोचक
क्या तो समय , कविता संग्रह ज्ञानपीठ से २००४ में प्रकाशित
पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख
ई पत्रिका समालोचन का संपादन
www.samalochan.blogspot.com
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