गए थे परदेस में रोजी रोटी कमाने
चेहरे वहां हजारों थे पर सभी अनजाने
दिन बीतते रहे महीने बनकर
अपने शहर से ही हुए बेगाने
गोल रोटी ने कुछ ऐसा चक्कर चलाया
कभी रहे घर तो कभी पहुंचे थाने
बुरा करने से पहले हाथ थे काँपते
पेट की अगन को भला दिल क्या जाने
मासूम आँखें तकती रही रास्ता खिड़की से
क्यों बिछुड़ा बाप वो नादाँ क्या जाने
दूसरों के दुःख में दुखी होते कुछ लोग
हर किसी को गम सुनाने वाला क्या
- मंजरी शुक्ला
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