बदनामी के डर से
अवैध नवजात ‘सच’ को
उसकी ‘मां’ ने जनते ही
कूड़े के ढ़ेर पर फेंक दिया
बिलबिलाती गंदगी पर
धूप में
भूख से बिलखते ‘सच’ पर
आततायी आवारा कुत्तों ने
जश्न मनाने के लिए
बोल डाला है धावा
चारों तरफ से
नोच डाला नवजात को
लेकिन
नवजात ‘सच’
फिर भी नहीं मरा
बढ़ गईं हैं धड़कनें
उफन रही हैं सांसें
जीने की चाह
यकीनन बाकी है
रह-रह उठा रहा है
शिशु-मुख से चीत्कार
मौन समाज में जा कर
कहीं छिपी बैठी है
उसकी उत्तर-आधुनिक ‘मां’
इस इंतज़ार में
कि मिट जाए ‘सच’
तो फिर इठला सके
अपने कुंआरेपन पर
समाज में.....
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(रांची की स्वयंसेवी संस्था स्पेनिन द्वारा आयोजित स्पेनिन सृजन सम्मान के लिए चयनित कविता)
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