मधुर मधुर मेरे दीपक जल !
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा धुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल गल!
पुलक पुलक मेरे दीपक जल !
सारे षीतल कोमल नूतन,
मांग रहे तुझसे ज्वाला कण
विश्व-शलभ सिर धुन कहता’ मैं
हाय न जल पाया तुझमें मिल’!
सिहर सिहर मेरे दीपक जल!
जलते नभ में देख असंख्य,
स्नेहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर सा उर जलता,
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहंस विहंस मेरे दीपक जल!
दुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाल को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बंदी हैं तापों की हलचल!
बिखर बिखर मेरे दीपक जल!
मेरे निःश्वासों से दुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर;
मैं अंचल की ओट किये हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज सहज मेरे दीपक जल!
सीमा ही लघुता का बंधन,
है अनादि तू मत घड़ियां गिन;
मैं दृग के अक्षय कोषों से-
तुझ में भरती हूं आंसू जाल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !
तब असीम तेरे प्रकाश चिर,
खेलेंगे नव खेल निरंतर;
तम के अणु अणु में विद्युत सा-
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !
तू जल जितना होता क्षय,
या समीप आता छलनामय;
मधुर मधुर में मिट जाना तू-
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल खिल !
मंदिर मंदिर मेरे दीपक जल !
प्रियतम का पथ आलोकित कर !
- महादेवी वर्मा
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