अभी इस समय
कहीं बहुत नजदीक के घरों में
कुछ लोगों के रोने की आवाज आ रही है।
निकल कर जानना चाहता हूं
लेकिन कुछ समझ नहीं पाता
और फिर अन्दर लौट आता हूं।
यही एक बात मुझे परेशान कर रही है इन दिनों
आदमी के दुःख का अनुमान भी नहीं मिल पाता
कल भी शायद न पता चले कि कौन लोग थे जो व्यथा से भर कर रोते रहे आज रात भर?
उनका दुःख क्या था
उस व्यथा का क्या हुआ निदान?
वहां कुछ और लोग हैं जो रुलाई के दर्शक हैं
श्रोता हैं साक्षी हैं
खिड़कियां खुल कर बंद हो जा रही हैं
मदद के हाथ बढ़ा कर पीछे हट जा रहे हैं लोग
पूर्णिमा है या अमावस सबका रंग
क्षीण हो गया है!
प्रकाश होने न होने से
बहुत अंतर नहीं पड़ता मन पर।
सोच रहा हूं
रात की जगह दिन होता तो भी ऐसा ही होता
सब कुछ दूर हो गया है
और समझ के बाहर भी।
कोई कहता है मुझसे
"तुम्हें जागना हो तो जागते रहो रात भर
सोना हो तो सो जाओ
तुम्हें रोना है तो रो भी लो
कर लो जो जितना कुछ कर पाओ"
कौन था यह देखने की कोशिश की तो ओह
यह क्या
यह तो सरदार पटेल हैं
आंखों से निथर रहा है गाढ़ा खून
कुछ देख नहीं पा रहे
टटोल कर चलते गिरते उठते
अपनी आंखों के खून से भीगे
भूख से परास्त पटेल
अपनी ही मूर्ति के आगे
कटोरा लिए बैठे पटेल!
मैं उनसे कहता हूं
"आप क्यों निकले इस अकाल बेला में
और आंख का निदान क्यों नहीं करवाते आप?
वे बोलते हैं
"धीरे बोलो
इतना धीरे की मेरी मूर्ति भी
न सुन पाए हमारी बातें
मूर्तियों से डर लगता है
मैं अपने ये खून के आंसू
छिपाता हुआ आया हूं यहां तक
अपनी भूख
अपने घाव
अपने अभाव
सब छिपाओ और चुप रहने का अभ्यास करो"
मैं दौड़ता हूं पोछ दूं पटेल के रक्त अश्रु
लेकिन पटेल खो जाते हैं
एक विशाल इस्पात मूर्ति में।
उनके खून का निशान धोया जा रहा है
अनेक तरह से साफ किया जा रहा है
उन के खून का हर कण!
उनको भी बांधा जा रहा है
लौह श्रृंखलाओं से
उसी भयानक डरावनी मूर्ति में
जिसमें वे समाहित हो गए
अभी अभी!
मैं सोचता बैठा हूं
अपने छोटे से कमरे में
क्यों आए पटेल यहां
आंख में खून के आंसू थे तो पूरा गुजरात पार कर कैसे आए वे मेरे पास?
जब दुःख दिखाना मना है
वे कैसे निकल पाए होंगे?
मैं भूल जाता हूं कि मैं घर में नहीं
सड़क पर हूं
और राह भटक कर चला आया हूं
पटेल के पास!
यह जो विलाप है क्या
यह सरदार पटेल का ही रोना है?
नहीं नहीं नहीं
सरदार नहीं उनकी मूर्ति की छाया में घायल पड़े हैं
विनोबा यह उनकी रुलाई है?
या मोहनदास कर्म चंद गांधी तो नहीं?
ऐसी साधारण जन सी रुलाई कौन रो सकता है
जो चतुर्दिक सुनाई दे
हर आदमी के फेफड़े में
हर आदमी के मस्तिष्क में
हर आदमी के पराजय में
जो रोर बन कर गूंज जाए
यह किसकी रुलाई है?
अरे अरे यह तो गांधी ही हैं
अपने फेफड़े में धंसी पिस्टल की गोलियां
अपने हाथों से निकाल कर गांधी भागते जा रहे हैं
रोते हुए न करते हुए फरियाद
न बचाव के लिए राम को पुकारते
न अपना दुःख किसी को दिखाते
न गोलियों से बने घाव से बहता रक्त रोकते।
लेकिन पैदल पैदल कहां तक भाग पाएंगे गांधी?
कितनी दूर है उनका गांव
उनका अपना पोरबंदर सेवाग्राम!
पांव कट गए हैं
उनकी लाठी छीन ली है किसी ने
उनका खून सोखने उनके घावों से चिपक गए हैं ये कौन लोग?
और उस पर भी जब नहीं मरते गांधी
नहीं गिड़गिड़ाते गांधी
फिर भी
उनके पीछे दौड़ रहे हैं रिवाल्वर लिए कितने लोग
निशाना साधे
घेरते गांधी को
विनोबा को!
यह गांधी ऐसे क्यों रो रहे?
क्यों गिड़गिड़ा नहीं रहे
मांग नहीं क्यों रहे प्राण की भीख
आखिर इतने बेगाने क्यों हैं पिता?
कौन लोग हैं जो गांधी की हत्या में सुख पाने का उपाय खोज रहे हैं
कोई चेहरा छिपा नहीं है अब
फिर भी पहचान करना कठिन कैसे हो रहा है?
मैं जोर देता हूं
लेकिन हजारों चेहरे मिल कर एक हो गए हैं
और इतने अभिभूत हैं सब की हत्यारों की शिनाख्त से अधिक उनके प्रभा मंडल पर है सबकी आंखें
और वहां मेला सा लग गया है
गांधी का शरीर
गांधी का खून सब
उज्जवल होकर एक पवित्र द्रव में
परिवर्तित हो गया है
जिससे तिलक लगा कर
लोग लगातार पवित्र होते जा रहे हैं।
ऐसे लोगों की भीड़ इतनी अधिक हो गई है
पटेल की मूर्ति के पीछे कि
अब गांधी के रोने की वजह भी
पता नहीं चल पा रही है।
मैं खुद से पूछता हूं कि क्यों रो रहे होंगे गांधी
उनको क्या दुःख था
क्यों बह रहा है पटेल की आंखों से खून
क्यों विक्षिप्त से घूम रहे विनोबा
उनको
उन सब को अभी क्या तकलीफ है?
एक साथ हजारों लोग डपटते हैं
मुझे कि
"अपना उपचार कराओ
कहीं कोई नहीं रो रहा
यह तुम्हारा भ्रम है
और ऐसा ही है तो सुनो संसार भर की रुलाई
तुमको किसने रोका है
जो नहीं सुनाई पड़ रही हैं उनको भी सुनो
फिर संसार भर की दिख रही और
छुपी सारी रुलाइयों को गूंथ कर
एक कविता बनाओ!
तुम उनका दुःख भले न समझ पाओ
पर उनके दुःख को
अपनी विकलता से जोड़ जाओ
कविता से हमको फर्क नहीं पड़ता है"
मैं अपने को समझाता हूं
सुबह बात करूंगा आस पड़ोस में
पूछूंगा गांधी को रोते सुना क्या?
पटेल तुम्हारे पास भी आए थे
आंखों से बहाते रक्त अश्रु
तुमने गांधी के फेफड़े में फंसी वह गोली देखी क्या?
कोई सीधे बात नहीं करता
और उधर पटेल की मूर्ति की छाया में
गांधी को घेर कर जलाया जा रहा है
जीवित जल रहे हैं गांधी!
उधर बहुत कोलाहल है
बहुत विजय उल्लास है उधर!
उसी उल्लास के
आस पास से लगातार
अनेक लोगों के
रोने की आवाजें आ रही हैं
मैं स्वयं एक विलाप में परिवर्तित हो गया हूं!
पटेल की आंख का रक्त अश्रु हूं मैं
गांधी का छिदा हुआ रक्त हीन शरीर हूं मैं
बहुत करीब से कहीं से
आ रहा वह रुदन हूं मैं!
ओह भाव की सारी बातें खून से सुगंधित हो चली हैं
मैं किसी दिशा में निकलता हूं
विदा मित्रों विदा!
बोधिसत्व, मुंबई
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